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________________ ( २०२ ) प्र० १९४-संसार दशा मे जीव कैसा कहने में आता है ? उ०-ससार दशा मे अनादि से मूर्तिक पुद्गल कर्मों के साथ उसका बन्ध है। इसलिये सयोग का ज्ञान कराने के लिये उसे मूर्तिक कहा जाता है, परन्तु मूर्तिक है नही। प्र० १६५-यदि कोई जीव को मूर्तिक ही माने तो क्या दोष आवेगा ? उ6-जीव-अजीव का भेद ही नहीं रहेगा। प्र०-१९६-जीव को ससार दशा मे मूर्तिक किस नय से कहा जा सकता है ? उत्तर-अनुपचारित असदभूत व्यवहारनय से कहा जा सकता है कि जीव मूर्तिक है। प्र० १९७-अनुपचरित असद्भुत व्यवहारनय से जीव मूर्तिक हैइस वाक्य पर निश्चय-व्यवहार के दस प्रश्नोत्तर लगाकर समझाइये? उत्तर–प्रश्नोत्तर १८६ से २०७ तक के अनुसार नीचे पढिये । प्र० १९८-कोई चतुर कहता है कि मै अमूर्तिक हू ऐसे निश्चयका श्रद्धान रखता हूं और मै मूतिक हूं-ऐसे अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय की प्रवृति रखता हूं। परन्तु आपने हमारे निश्चयव्यवहार दोनो को झूठा बता दिया, तो हम निश्चय-व्यवहार दोनो नयो को किस प्रकार समझे तो हमारा माना हुआ निश्चय-व्यवहार सत्यार्थ कहलावे? उत्तर-मै अमूर्तिक हूँ ऐसा निश्चयनय से जो निरुपण किया है। उसे तो सत्यार्थ मानकर उसका श्रद्धान करना और मै मूर्तिक हूँऐसा जो अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय से निरुपण किया हो उसे असत्यार्थ मानकर उसका श्रद्धान छोडना। प्र. १९६-मै मूर्तिक हूं-ऐसे अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय के त्याग करने का और मै अमूर्तिक हू-ऐसे निश्चयनय के अंगीकार
SR No.010123
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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