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________________ ( १८७ ) उत्तर - (१) सयोग रूप जड प्राण व्यवहारनय से ज्ञान का ज्ञेय है । (२) क्षयोपशमरुप भाव प्राण ज्ञेय हेय है । ( ३ ) चेतना प्राण आश्रय करने योग्य परम उपादेय है । (४) चेतना प्राण के आश्रय से जो ज्ञान व क्लादि प्रगट हुआ है वह एक देश प्रगट करने योग्य उपादेय है । (५) चेतना प्राण के परिपूर्ण आश्रय से जो क्षायिक दशा प्रगट हुई है वह पूर्ण प्रगट करने योग्य उपादेय है । प्र० १२५ - अनादि से ससार क्यो है ? उत्तर - जड प्राणो मे अपने पने की मान्यता से ही ससार है । जब तक जीव देह प्रधान विपयो का ममत्व नही छोडता तब तक वह पुन पुन अन्य अन्य प्राण धारण करता है । प्र० १२६ - इन जड प्राणो का सम्बन्ध कैसे हटे उत्तर- मै चेतना प्राण वाला है ऐसा अनुभव करे तो इन दस प्राणो मे ममत्वपना मिटकर क्रम से सिद्ध दशा की प्राप्ति हो तब प्राणो का सम्बन्ध ही नही बनेगा । प्र० १२७ - तीसरी गाथा का तात्पर्य क्या है ? उत्तर - जीव द्रव्य से पुद्गल विपरीत है । इसलिये चेतनामयी परमात्म द्रव्य ही मै हूँ - ऐसो भावना करनी चाहिये । प्र० १२८ - सिद्ध भगवाद मे कौन-कौन से प्राण होते है ? उत्तर - शुद्ध निश्चयनय से चेतना प्राण तो है ही । पर्याय मे जो क्षायिक दशा प्रगट हो जाती है उसे भी भाव प्राण कहते है । इस प्रकार सिद्ध भगवान के चेतना प्राण और उसके आश्रय से शुद्ध दशा प्राण होते है । प्र० १२६ - साधक ज्ञानी के कौन कौन से प्राण होते है ? उत्तर- (१) चेतना प्राण तो शुद्ध निश्चयनय से है ही । ( २ ) पर्याय मे अपनी-अपनी भूमिकानुसार जो शुद्धि प्रगट होती है वह भाव प्राण आनन्द रुप है । ( ३ ) जड प्राण ज्ञेय रूप है । ( ४ ) जो अशुद्धि है वह हेय रूप है। 1
SR No.010123
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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