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________________ ( १८६ ) व्यवहारनय से जीव की पहचान कराई, तब मै दस प्राणवाला हूं- ऐसे अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय को कैसे अगोकार नहीं करना चाहिये ? उत्तर - अनुचरित असद्भूत व्यवहाग्नय से दस प्राण रुप पर्याय को जीव कहा सो प्राणो को ही जीव नही मान लेना । प्राण तो जीव के सयोग रूप हे । शुद्ध निश्चयनय से चेतना प्राण वाला जीव भिन्न है, उस ही को जीव मानना । चेतना प्राण वाला आत्मा के सयोग से प्राणी को भी उपचार से जीव कहा- सो कथन मात्र ही है । परमार्थ से जडप्राण जीव होते ही नही ऐसा श्रद्धान करना । प्र० १२२ - मै दस प्राण वाला हू- ऐसे अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय के कथन को ही जो सच्चा मान लेता है उस जीव को जिनवाणी मे किस किस नाम से सम्बोधन किया है ? उत्तर- मै दस प्राण वाला हूँ-ऐसे अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय के कथन को ही जो सच्चा मान लेता है ( १ ) उसे पुरुषार्थ सिद्धियुपाय में "तस्य देशना नास्ति" कहा है। (२) उसे समयसार कलश ५५ मे ' यह उसका अज्ञान मोह अन्धकार है, उसका सुलटना दुर्निवार है ।" ( ३ ) इसे प्रवचनसार गाथा ५५ मे "पद-पद पर धोखा खाता है ।" ( ४ ) उसे आत्मावलोकन में "यह उसका हरामजादीपना है । प्र० १२३ - चेतना प्राण क्या है और किसको होते हैं ? उत्तर - चेतना प्राण त्रिकाल पारिणमिक भाव रूप से है और निगोद से लगा कर सिद्ध भगवान तक के सर्व जीवो के चेतना प्राण एक समान सदा विद्यमान रहता है | चेतना प्राण के आश्रय से ही धम की प्राप्ति वृद्धि और पूर्णता होती है । प्र० १२४ - प्राणो मे ज्ञेय हेय उपदेयपना किस प्रकार है -
SR No.010123
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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