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________________ ( १५१ ) प्र० ३५ - सम्यग्दृष्टि को किसका शरण है ? उत्तर- "इसलिये निश्चयत मुझे मेरा स्वरूप ही शरण है और वाह्यत पचपरमेष्ठी, जिनवाणी और रत्नत्रयधर्म शरण है और मुझे इनके अतिरिक्त स्वप्नमे भी और कोई वस्तु शरणरूप नही, ऐसा मैने नियम लिया है" प्र० ३६ - सम्यग्दृष्टि का उपयोग स्व मे ना लगे तो तब वह क्या करता है ? 1 उत्तर - सम्यग्दृष्टि पुरुष ऐसा नियम कर स्वरूप मे उपयोग लगावे और उसमे उपयोग नही लगे तो अहित और सिद्धके स्वरूप का अवलोकन करे और उनके द्रव्य, गुण, पर्याय का विचार करे। ऐसा विचार करते हये उपयोग निर्मल हो तब फिर उसे ( उपयोगको ) अपने स्वरूप मे लगावे । अपने स्वरूप जैसा अरिहतो का स्वरूप है और अरिहन सिद्ध का स्वरुप जैसा अपना स्वरुप है । अपने (मेरी आत्मा के ) और अहित- सिद्धो के द्रव्यत्व स्वभाव मे अन्तर नही है किन्तु उनके पर्याय स्वभाव मे अन्तर है ही । मै द्रव्यत्व स्वभाव का ग्राहक हूँ इसलिये अरिहत का ध्यान करते हुए आत्मा का ध्यान भी प्रकार सघता है और आत्मा का ध्यान करते हुए अरिहंतो का ध्यान भली प्रकार सथता है । अरिहतो और आत्मा के स्वरूप मे अन्तर नही है चाहे अरिहत का ध्यान करो या चाहे अत्मा का ध्यान करो दोनो समान है ।" ऐसा विचार हुआ सम्यग्दृष्टि पुरुष सावधानीपूर्वक स्वभाव मे स्थित होता है । प्र० ३७ - सम्यग्दृष्टि क्या विचार करता है और कैसे कुटुम्ब, परिवार आदि से ममत्व छुडाता है ? उत्तर- पहले अपने माता-पिता को समझाता है - अहो। इस शरीर के माता-पिता। आप यह अच्छी तरह जानते हो कि यह शरीर इतने दिनो तक तुम्हारा था अब तुम्हारा नही है । अव इसकी आयु पूरी होनेवाली है सो किसी के रखने से वह रखा नही जा सकता । इसकी इतनी ही स्थिति है सो अब इससे ममत्व छोडो। अब इससे
SR No.010123
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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