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________________ ( १५० ) शुद्धोपयोगकी आराधना करू गा और शरीर नहीं रहेगा तो परलोक मे जाकर शुद्वोपयोग की आराधना करू गा । इस प्रकार दोनो ही स्थिति मे मेरे शुद्धोपयोग के सेवन मे कोई विघ्न नही दिखता है इसलिये मेरे परिणामो मे सक्लेश क्यो उत्पन्न हो । प्र० ३२-ज्ञानी अपने शुद्ध भावो को कैसा जानता है ? उत्तर-'मेरे परिणामो मे शुद्ध" स्वरूप से अत्यन्त आसक्ति है। उस आसक्तिको छुडाने मे ब्रह्मा, विष्णु, महेश, इन्द्र, धरणेन्द्र, नरेन्द्र आदि कोई भी समर्थ नहीं है । इस आसक्ति को हुडाने मे केवल मोह कर्म ही समर्थ है जिसे मैने पहले ही जीत लिया। इसलिए अव तीन लोक मे मेरा कोई शत्रु नही रहा और गत्रुओ बिना त्रिकाल-त्रिलोक मे दुख नही है इसलिए मरण से मुझे भय कैसे हो? इस प्रकार मै आज पूर्णत निर्भय हुआ है। यह बात अच्छी तरह जाननी चाहिये इसमे कुछ सन्देह नहीं है। प्र० ३३-क्या ज्ञानी पुरुष शरीर की स्थिति से परिचित होता है? उत्तर-शुद्धोपयोगी पुरुप इस प्रकार गरीर की स्थिति से पूर्णत परिचित है और ऐसा विचार करने से उसके किसी भी प्रकार की आकुलता नहीं होती है । आकुलता ही ससार का वोज है इस आकुलता से ही ससारकी स्थिति एव वृद्धि होती है। अनन्तकाल से किए हुये सयमादि गुण आकुलता से इस प्रकार नष्ट हो जाते है जिस प्रकार अग्नि मे रुई नष्ट हो जाती है। प्र० ३४-सम्यग्दृष्टि को आकुलता क्यो नही होती है ? उत्तर-सम्यक्ष्टि पुरुप को किसी भी प्रकार की आकुलता नही करनी चाहिये और वस्तुतः एक निजस्वरूपका ही बारम्बार विचार करना चाहिए उसीको देखना चाहिये और उसीके गुणो का सस्मरण, चिन्तवन निरन्तर करना चाहिए ! उसी मे स्थित रहना चाहिए और कदाचित् शुद्ध स्वरुप से चित्त चलायमान हो तो ऐसा विचार करना चाहिये।" यह ससार अनित्य है। इस ससार मे कुछ भी सार नहीं है। यदि इसमे कुछ सार होता तो तीर्थकर देव इसे क्यो छोडते?
SR No.010123
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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