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________________ ( १४८ ) बात का विकल्प उठे? कदाचित नही उठे। मैने विकल्प उत्पन्न कराने वाले व्यक्ति का (मोहवत) पहले ही भली भाति नाश कर दिया इस लिए मै निर्विकल्प आनन्दमय निज स्वरुप को बार-बार सम्हालता एव याद करता हुआ अपने स्वभाव मे स्थित हूँ ।" प्र० २८-कोई चतुर सम्यग्दृष्टि को इस प्रकार समझता है कि यह शरीर तो तुम्हारा नहीं है किन्तु इस शरीर के निमित्त से मनुष्य पर्याय मे शुद्धोपयोग का साधन भली प्रकार होता था उसका उपकार जानकर इसे रखने का उद्यम करना उचित है इसमे हानि नहीं है ? उत्तर-'हे भाई | तुमने यह बात कही सो तो हम भी जानते है। मनुष्य पर्याय मे युद्धोपयोग का साधन, ज्ञानाभ्यास का साधन, और ज्ञान वैराग्य की वृद्धि आदि अनेक गुणो की प्राप्ति होती है जो कि अन्य पर्याय मे दुर्लभ है, किन्तु अपने सयमादि गुण रहते हुये गरीर रहे तो रहो वह तो ठीक ही है हमारे से कोई बैर तो है नही और यदि शरीर न रहे तो अपने सयमादि गुण निर्विघ्न रूप से रखना और शरीर से ममत्व छोडना चाहिये । हमे शरीर के लिए सयमादि गुण कदाचित् भी नही खोने है। प्र० २६-सम्यग्दृष्टि ने क्या दृष्टान्त दिया है ? उत्तर - जैसे कोई रत्नो का लोभी पुरुप परदेश से रत्नद्वीप में फूस की झोपड़ी मे रत्न ला लाकर इकट्ठा करता है। यदि उम झोपडी मे अग्नि लग जावे तो वह विचक्षण पुरुष ऐसा विचार करे कि किसी प्रकार इस अग्नि का निवारण करना चाहिए रत्नो सहित इस झोपडी को बचाना चाहिए । यह झोपडी रहेगी तो इसके सहारे बहुत रत्न और इकट्ठे कर लू गा। इस प्रकार वह पुरुष अग्नि को बुझती हुई जाने तो रत्न रखकर उसे बुझावे और यदि वह समझे कि रत्न जाने से झोपडी रहे तो यह कदाचित् झोपडी रखने का उपाय नही करता। उस अवस्था मे वह झोपडी को जलने दे और सम्पूर्ण रत्नो को लेकर अपने देश आ जावे । तत्पश्चात् वह एक दो रत्न बेचकर
SR No.010123
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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