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________________ ( १०८ ) इसलिये हिसादिवत् अहिसादिक को भी बन्ध का कारण जानकर हेय ही मानना । (मोक्षमार्ग प्रकाशक पृष्ठ २२६ ) ( २ ) तथा अघाति कर्मों के उदय से बाह्य सामग्री मिलती है, उसमे शरीरादिक तो जीव के प्रदेशो से एक क्षेत्रावगाही होकर एक बन्धान रुप होते है और धन, कुटुम्बादिक आत्मा से ( सर्वथा ) भिन्न रुप है इसलिये वे सब बन्ध के कारण नही है, क्योकि पर द्रव्य बन्ध का कारण नही होता | उनमे आत्मा को ममत्वादिरुप मिथ्यात्वादिभाव होते है वही बन्ध का कारण जानना । (मोक्षमार्ग प्रकाशक पृष्ठ २७) प्र० ५४ - जिन-जिनवर और जिनवर वृषभो ने 'आस्रवतत्व का ज्यो का त्यो श्रद्धान' क्या बताया है ? उत्तर - पुण्य-पाप दोनो विभाव परिणति से उत्पन्न हुये है - इस लिये दोनो बन्ध रूप ही है । (१) व्यवहार दृष्टि से ( मिथ्यादृष्टि की खोटी मान्यता होने से ) भ्रमवश उनकी प्रवृत्ति भिन्न-भिन्न भासित होने से, वे अच्छे और बुरे दो प्रकार के दिखाई देते है । ( २ ) परमार्थ दृष्टि तो उन्हे (पुण्य-पाप भावो को ) एक रुप ही - बन्ध रुप ही बुग ही जानती है । ( समयसार कलश १०१ ) तथा प्रवचनसार गाथा ७७ मे कहा है कि जो पुण्य-पाप मे अन्तर डालता है वह घोर ससार मे भ्रमण करता है । यह आस्रवतत्व का ज्यो का त्यो श्रद्धान है । प्र० ५५ - जिन-जिनवर और जिनवर वृषभो से कथित 'आत्र " तत्व का ज्यो का त्यो श्रद्धान' के जानने से क्या लाभ रहा ? उत्तर- अनन्त ज्ञानियो का एक मत है - ऐसा पता चल जाता है। प्र० ५६ - जिन-जिनवर और जिनवर वृषभो से कथित 'आस्रवतत्व का ज्यो का त्यो श्रद्धान' को सुनकर ज्ञानी क्या जानते है और क्या करते है ?
SR No.010123
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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