SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 115
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( १०७ ) पुष्टि करते हुए चारो गतियो मे घूमकर निगोद मे चले जाते है। प्र० ५१-जिन-जिनवर और जिनवर वृषभो से कथित, 'अजीवतत्व का ज्यो का त्यो श्रद्वान' के विषय मे विशेष स्पष्टीकरण कहां देखें? उत्तर-जैन सिद्धान्त प्रवेशरत्नमाला भाग तीसरा पाठ तीन विश्व के प्रकरण मे प्रश्नोत्तर १०६ से २५१ तक देखियेगा। प्रास्रवतत्त्व का ज्यो का त्यों श्रद्धान प्र० ५२-'आस्रवतत्व का ज्यो का त्यो श्रद्धान' के विषय मे छहढाला मे क्या बताया है ? उत्तर- ', अब आस्त्रव सुनिये, मन-वच-काय त्रियोगा, मिथ्या अविरत अरु कषाय, परमाद सहित उपयोगा ॥८॥ ये ही आतम को दुख कारण, तातै इनको तजिये, भावार्थ -अब आस्त्रवतत्वो का ज्यो का त्यो श्रद्धान' का वर्णन करते है। (१)जीव के मिथ्यात्व-मोह-राग-द्वेष रुप परिणाम भाव आस्त्रव है। भाव आस्व के पाच भेद है-मिथ्यात्व, अविरत, प्रमाद, कषाय और योग । (२) मिथ्यात्वादि ही आत्मा को दु ख का कारण है, किन्तु पर पदार्थ दु ख का कारण नहीं है। इसलिये अपने दोष रहित त्रिकाली स्वभाव का आश्रय लेकर दोष रुप मिथ्या भावो का अभाव करना चाहिये। प्र०५३-मोक्षमार्ग प्रकाशक मे, 'आस्रवतत्व का ज्यो का त्यों श्रद्धान' के विषय मे क्या बताया है ? उत्तर-(१) अन्तरग अभिप्राय मे मिथ्यात्वादि रुप जो रागादिभाव है वे ही आस्त्रव है । ये सव मिथ्या अध्यवसाय है, वे त्याज्य है ।
SR No.010123
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy