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________________ ( ६७ ) और प्रगट करने योग्य सम्यकदर्शन-ज्ञान-चारित्र है। ऐसा जानकर स्वभाव का आश्रय ले तो अनादि का सकट मिट जावे और अपने आप का पता चले, तब अपने मे स्थिरता, वृद्धि, पूर्णता करके, मोक्ष का पथिक बने। (९) वालपन खेलकूद मे बीता, जवानी विषयभोगो मे खोई, वृद्धपना तकरूप है इसलिए समय रहते चेतो । चेतो ।। अमर मानकर निज जीवन को परमव हाय भुलाया। चान्दी सोने के टुकडो मे, फूला नहीं समाया। देख मूढता यह मानव की, उधर काल मुस्काया । अगले भव मे ले चला यहाँ नाम निशान न पाया ।। लाख बात की बात यही, निश्चय उर लाओ। तोरि सकल जग द्वन्द फन्द, नित आतम ध्याओ।। त्रिविध आतम जानके, तज बहिरातम भाव । होयकर अन्तर आत्मा परमातम को ध्याव ॥ ज्यो मन विपयो मे रमे, त्यो हो आतम लीन । शीघ्र मिले निर्वाण पद, धरे न देह नवीन । भवदीय -कैलाशचन्द्र जैन (यह पत्र ५०जी ने अपने हितैषियो को सोनगढ से ११-७-१९६६ को भेजा था तो हमारे मडल ने इसे अब छठवी बार छापा है ताकि पात्र जीव थोडे मैं समझकर अपना कल्याण कर लेवे ।) (३२) दशलक्षण धर्म दशलक्षणी-पर्युषणपर्व वर्ष मे तीन बार (माघ, चैत्र व भाद्र मास' मे) आता है। दसलक्षणी पर्युपणपर्व यह आराधना का महान पर्व है। चैतन्य की भावना पूर्वक सम्यग्दर्शन ज्ञान-चारित्र की
SR No.010122
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages175
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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