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________________ ( ६५ ) भेद है | भगवान की वाणी का रहस्य सम्यग्दर्शन प्राप्त किये बिना तीन काल, तीन लोक मे ११ अग पूर्व के पाठी को भी नही हो सकता है । इसलिए द्रव्यलिंगी को शुक्ललेश्या तथा ज्ञान का उवाङ होने पर भी मिथ्यादृष्टि असयमी, ससार का नेता कहा है । फिर भी धर्म मे विघ्न करने वाले कुछ महानुभावो को कुछ परलक्षी ज्ञान का उघाड़ होने से शास्त्रो का अर्थ, निश्चय व्यवहार की संधि का रहस्य न जानने के कारण अणुव्रत महाव्रत, दया, दान, यात्रादि करो, बाहरी क्रिया करो, पाठ करो, इससे धीरे-धीरे धर्म होगा और जीव को कर्म चक्कर कटाता है, कर्म हटे तो जीव का भला हो, जितनी तुम शुभ भाव की क्रिया करोगे उतनी जल्दी कर्म दूर हो जायेंगे । कोई शुद्धोपयोग आठवें गुणस्थान में, कोई १२ में गुणस्थान मे बतलाते हैं । इसलिए हे भाई, जो तुम्हे ऐसा उपदेश देता है और तुम उसे मानते हो, तो अनादि से अगृहीतमिथ्यात्व तो चला ही आ रहा था और उसमे गृहीतमिथ्यात्व की पुष्टि हो गई। वर्तमान मे ऐसे धर्म में विघ्न करने वाले महानुभावो की विशेषता है, इसलिए इनसे बचना चाहिये । यदि आप बाहरी क्रियाओ तथा शुभभावो से भला होता है ऐसी बातो मे पडे रहोगे तब तो वर्तमान मे त्रस की स्थिति पूरी होने को आई है और निगोद मुह बाए खड़ा है । सावधान | सावधान | (६) अनादि से तीर्थंकरादि कहते आये हैं कि तुम्हारा कल्याण एकमात्र अपनी आत्मा के आश्रय से ही होता है । मोक्षमार्ग एक ही है और वह है वीतरागरुप | परन्तु उसका कथन दो प्रकार का शुभभाव पुण्यबध का कारण है तथा प्रवचनसार मे जो पुण्य-पाप में अन्तर डालता है वह घोर ससार मे घूमता है, ऐसा कहा है । तो आज वर्तमान युग मे इन बात के ( जिनेन्द्र भगवान की बात के ) परम सत्य वक्ता श्री कानजीस्वामी है, जिन्होने वर्तमान मे पात्र जीवो को तीर्थकर भगवान का विरह भुला दिया है ओर पंचमकाल को चौथे काल के समान बना दिया है। यदि आपको अपना कल्याण करना हो तो सब बातो की मूर्खता छोड़कर हर साल अगस्त में क्लास "
SR No.010122
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages175
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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