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________________ ( १६ ) एक अथक श्रम करता लेकिन भूखा सोता रात है, और मोतियो के करण्ड मे होता कही प्रभात है। विधि का यही विधान न इसमे श्रम का नाम निशान भी ॥१५॥ यही दृष्टि विपर्यास है यह ही पहलो भूल हैं, भवतरु की सभूति वृद्धि फल मयता का यह मूल है। जब तक पौरुष सोता रहता तबतक यह नादान है। अरे । तभो तक ही तो कहते कर्म महा बलवान है । ज्ञान और चारित्र सभी इसके अभाव मे दीन हैं। विधवा के शृगार तल्य वे सन्दरता श्री हीन है। अरे । अगोचर महिम मक्ति के मगलमय सोपान का ॥१६।। - जिसे आत्मा की जिज्ञासा जाग्रत हो, पिपासा लगे, बहार का सब दुखमय भासित हो, उसे यदि वह अन्तर मे खोज करे तो, आत्मा की महिमा आये। जिसे संसार मे तन्मयता है, उसे आत्मा की महिमा नही आती । जिसे बाह्य मे-धिभाव मे-दुख लगे, वह विचार करता है कि यह तो सब दु.ख रूप है। मैं तो अन्तर मे ऐसा कोई अनुपम तत्त्व है कि जिस मे परिपूर्ण सुख है । जिसे जिज्ञासा जाग्रत हो वह अपने आत्मा का गुण-वैभव देखने का प्रयत्न करता है और तब उसे उसकी महिमा आती है। 'आत्मा का वैभव कैसा है ? उसे कौन बतलाये? यह कैसे प्रगट हो ? ऐसी जिसे जिज्ञासा हो वह खोज करता है।
SR No.010122
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages175
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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