SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 18
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( १८ ) एक सहायक होता पर का यह लौकिक व्यवहार है, बाधा देता एक दूसरे को यह लोकाचार है । वचता जीवन तो पर होता रक्षा आरोप है, का थोप है । त्राण की ॥ १० ॥ काम ले, दे । पर मरता स्वय लोक कर्त्ता पर पर हत्या है स्वतन्त्र जीवन, मिथ्या है गाथा बाघा पूर्ण शक्ति मय अणु-अणु बोलो कोई किससे पूर्ण कुभ को कौन वुद्धिमन् बरबस ही जलदान सलिल भर घट को जल देना श्रम का ही अपमान है, सदा पूर्ण जो उसको रीता कहना घोर अज्ञान है । यही मान्यता मूल रही है ससृति-चक्र-विधान की ॥ ११ ॥ जड का कार्य सदा जडता मे जडता उसका धर्म है, जडता ही उसका स्वभाव और जडता उसका कर्म है । जडता द्रव्य शक्ति भी जड़ता जडता ही पर्याय है, द्रव्य क्षेत्र और काल भाव सब जडता ही व्यवसाय है । अत न जड मे पर्याये होती है ज्ञान की ॥ १२ ॥ ज्ञान शून्य जड नही कभी भी निज पर को पहिचानता, जग मे चेतन तत्त्व एक वस पर को अपना मानता । चेतन का श्रद्धा विकार वस यह भवतरु का प्राण है, सुख सागर की घोर कष्टमयता का यही निदान है नही पराया दुख का कारण नहीं सुख व्यवधान भी ॥ १३ ॥ अपने सुख के हेतु चेतना पर के मुँह को ताकती, अपने दुख के कारण को वह पर मे सदा तपासती । अरे अज्ञ शुक निज को नलिनी स्नेह पाश में बाधता, और अकारण नलनी को वधन का कारण मानता । नही छोड़ता हुआ न तब तक स्वर्णिम मुक्ति विहान भी ॥ १४ ॥ अरे धनादि मयोग पुण्य के उदय जन्य जन्य सामान है, उनके सम्पादन मे चेतन का न तनिक अहसान है | श्रद्धा ·
SR No.010122
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages175
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy