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________________ ( १६१ ) ससार मे रह सकता है और यदि उग्र पुरुषार्थ साधे तो शीघ्र ही अन्तर मुहूर्त मात्र काल मे परमधाम रूप निर्वाण सुख को प्राप्त कर लेता है ॥ १०॥ ये धन्य जीव धन भाग सोय, जाके ऐसी परतीत होय । ताकी महिमा है स्वर्ग लोय, 'बुधजन' भाषे मोसे न होय ॥ ११ ॥ अर्थ :- जिसे सम्यक दर्शन हुआ है, वे जीव धन्य है, वही धन्य भाग्य हैं । स्वर्गलोक मे भी उनकी प्रशसा होती है, ज्ञानी जन भी उनकी प्रशसा करते हैं । परन्तु बुधजन कवि कहते हैं कि मुझ से तो ऐसे आत्मज्ञानी सम्यक् दृष्टि जीव का वर्णन शब्दो मे नही हो सकता है ॥११॥ तीसरी ढाल का सारांश आत्मा का कल्याण सुख प्राप्त करने मे है । आकुलता का मिट जाना वह सच्चा सुख है, मोक्ष ही सुखरूप है, इसलिये प्रत्येक आत्मार्थी को मोक्षमार्ग मे प्रवृत्ति करनी चाहिए । निश्चय सम्यक्दर्शन- सम्यग्ज्ञान- सम्यग्चारित्र - इन तीनो की एकता ही मोक्षमार्ग है । उसका कथन दो प्रकार से है । निश्चय सम्यक्दर्शन - ज्ञानचारित्र तो वास्तव मे मोक्षमार्ग है और व्यवहार सम्यक्दर्शन - ज्ञान चारित्र वह मोक्षमार्ग नही है, किन्तु वास्तव मे बन्धमार्ग है । लेकिन निश्चय मोक्षमार्ग मे निमित्त व सहचारी होने से उसे व्यवहार मोक्षमार्ग कहा जाता है । जो विवेकी जीव निश्चय सम्यक्त्व को धारण करता है उसे जब तक निर्बलता है तब तक पुरुषार्थ की मन्दता के कारण यद्यपि किंचित् सयम नही होता, तथापि वह इन्द्रादि के द्वारा पूजा जाता है । तीनलोक और तीनकाल मे निश्चय सम्यक्त्व के समान सुखकारी अन्य कोई वस्तु नही है । सर्व धर्मों का मूल, सार तथा मोक्षमार्ग की प्रथम सीढी यह सम्यक्त्व ही है । सम्यक्त्व के बिना ज्ञान और चारित्र सम्यकपने को प्राप्त नही होते किन्तु मिथ्या कहलाते हैं । इसलिये प्रत्येक आत्मार्थी की सत शास्त्रो का स्वाध्याय, 1
SR No.010122
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages175
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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