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________________ (१६० ) मादि भी करता दिखाई देता है, परन्तु जैसे जल मे कमल का वास होने पर भी वह जल से भिन्न अलिप्त रहता है। उसी प्रकार गृहवास में रहता होने पर भी धर्मी जीव उस घर, कुटम्ब, व्यापार आदि से भिन्न-अलिप्त एव उदास रहता है ॥७॥ ज्यों सती अग माहीं सिंगार, अतिकरत प्यार ज्यो नगर नारि । ज्यो धाय लडावत अन्य बाल, त्यों भोग करत नाहीं खुशाल ॥८ अर्थ :-जैसे शीलवान स्त्री के शरीर का श्रृ गार पर पुरुष के प्रति राग के लिए नही होता। जैसे वेश्या अतिशय प्रेम दिखाती है। परन्तु वह अन्तरग का प्रेम नही होता । और जैसे धाय माता अन्य दूसरे के बालक को दूध पिलाती है, परन्तु अन्तरग मे वह धाय उस बालक को पराया ही जानती है; ठीक उसी प्रकार सम्यक् दृष्टि जीव ससार के भोगो को भोगता हुआ दीखता है, तथापि उसे उन भोगो मे खुशी नही, उनमे वह सुख मानता नही, उनसे तो वह अन्तरग षद्धान मे विरक्त ही है ॥८॥ अब उदय मोह चारित्र भाव, नहिं होत रंच हू त्याग भाव । तहाँ करै मन्द खोटी कषाय, घर मे उदास हो अथिर थाय ॥६॥ अर्थ :-जब तक उसे चारित्र मोह रूप कर्म प्रकृति का तीव्र उदय रहता है तब तक वह जीव रच मात्र भी त्याग भावरूप व्रत धारण नही कर सकता है। परन्तु वह अशुभ रूप कषायो को शुभभाव रूप करता है और वह अस्थिरपनेवश उदास चित्त वाला होकर घर मे रहता हुआ दिखता है ॥९॥ सब की रक्षा युत न्याय नीति, जिन शासन गुरु को द्रढ़ प्रतीति । बहु रुले अर्द्ध पुद्गल प्रमाण, अन्तर मुहूर्त ले परम धाम ॥१०॥ अर्थ :-और वह सम्यक दृष्टि जीव सभी जीवो की रक्षा सहित न्याय नीति से प्रवर्त्तता है, सर्वज्ञ भगवान के उपदेश को एव सच्चे गुरु की द्रढ़ प्रतीति करता है। यदि सम्यक्त्व से भ्रष्ट हो जावे तो यह अधिक से अधिक अर्द्ध पुदगल परावर्तन प्रमाण काल तक सब की रक्षा पदगल प्रमाण, जीव सभी जीवो को एव सच्ने बाहरुले अद्ध और यह सम्यक् वा भगवान
SR No.010122
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages175
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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