SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 156
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (१५६ ) दूसरी ढाल का सारांश तीन लोक मे जो अनन्त जीव हैं वे सब सुख चाहते हैं और दुःख से डरते हैं । किन्तु अपना यथार्थ स्वरुप समझे तभी सुखी हो सकते हैं। मिथ्यात्व भाव ही दुख का कारण है किन्तु भ्रमवण होकर कैसे-कोसे सयोग के आश्रय से विकार करता है वह सक्षेप मे कहा है। त्रियंच गति के दु.खो का वर्णन -यह जीव निगोट मे अनन्त काल तक रहकर, वहाँ एक श्वास मे अठारह बार जन्म धारण करके अकथनीय वेदना सहन करता है। वहां से निकलकर अन्य स्थावर पर्यायें धारण करता है। बस पर्याय तो चिन्तामणि रत्न के समान अति दुर्लभता से प्राप्त होती है वहां भी विकलत्रय शरीर धारण कर के अत्यन्त दुःख सहन करता है । कदाचित असज्ञी पन्चेन्द्रिय हुआ तो मन विना दु ख प्राप्त करता है । सज्ञी हो तो वहां भी निर्वल प्राणी बलवान प्राणी द्वारा सताया जाता है। बलवान जीव दूसरो को दुख देकर महान पाप का वध करते है ओर छेदन-भेदन, भूख-प्यास, शीतउष्णता आदि के कथनीय दुखो को प्राप्त होते है।। नरक गति के दुःखों का वर्णन -जब कभी अशुभ पाप परिणामों से मृत्यु प्राप्त करते हैं तब नरक मे जाते हैं । वहाँ की मिट्टी का एक कण भी इस लोक मे आ जाये तो उसको दुर्गन्ध से कई कोसो के सज्ञी पचेन्द्रिय जीव मर जायें। उस धरती को छने से भी असह्य वेदना होती है। वहाँ वैतरणी नदी, सेमल वृक्ष, शीत-उष्णता तथा अन्न जल के अभाव से स्वत महान दुख होता है। जब विलो मे औधे मुंह लटकते हैं तब अपार वेदना होती है। फिर दूसरे नारकी उसे देखते ही कुत्ते को भान्ति उस पर टूट पडते हैं और मारपीट करते हैं। तीसरे नरक तक अम्ब और अम्बरीष आदि नाम के सक्लिष्ट परिणामी असुर कुमार देव जाकर नारकियो को अवधिज्ञान द्वारा पूर्व भवो के विरोध का स्मरण कराके परस्पर लडवाते है। तब एक दूसरे के द्वारा कोल्हू मे पिलना, अग्नि मे जलना, आरे से चीरा जाना, कढाई में
SR No.010122
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages175
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy