SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 155
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( १५५ ) पर को सम्पत्ति लखि अति भूरे के रति काल गमावै । आयु अन्त माला मुरज्ञावै, तब लाख लखि पछतावे ॥६॥ अर्थ - जब मरण काल आ उपस्थित हो तब इस जीव का कुछ भी जोर नही चलता, बोल भी नही सकता, अत मन की बात इशारा कर-करके बतलाता है । इस प्रकार कुमरण भाव से मरकर जो सन्द कषाय रुप भाव हो तो भवनवासी- व्यन्तर या ज्योतिपी इन हलकी जाति के देवो मे उत्पन्न होता है । वहाँ अन्य दूसरे वडे वैभवमान देवो की सम्पदा देखकर खूब झूरता है । अथवा विपय क्रीडा रूप रति मे ही काल गवाता है । आयु का अन्त आने पर उस देव की मन्दारमाला मुरझाने लगती है, उसे देखकर वह जीव बहुत ही पछताता है ॥ ६ ॥ तहं ते चय कर थावर होता, रुलता काल अनन्ता । या विष पंच परावर्तन दे, दुख को नाहीं अन्ता ॥ काललब्धि जिन गुरु किरपा से, आप श्रापको जाने । तब ही बुधजन भवदधि तिरके, पहुँच जाय शिव थाने ॥७॥ अर्थ -- और वह देव आर्त्तध्यान पूर्वक देवलोक से चयकर स्थाबय हो जाता है । इस प्रकार अज्ञान से संसार मे भ्रमते भ्रमते जीव ने अनन्त काल पर्यन्त पच परावर्तन किया और अनन्त दुख पाया । निज काल लव्धि रूप सुसमय आने पर जिन गुरु की कृपा से जब आत्मा स्वयं अपना स्वरूप जानले, मानले और अनुभव करले तव वह जीव भव समुद्र से तिर कर निवार्ण रुप सिद्धपद मे पहुच जाता है जहाँ पाश्वत सुखी रहता है ॥७॥ 1 सार ससार की कोई भी गति सुखदायक नही है । निश्चय सम्यग्दर्शन से ही पच परावर्तन रूप ससार परित होता है । अन्य किसी कारण से दया, दानादि के शुभराग से ससार नही टूटता । कोई भी सयोग सुख दुख का कारण नही है, किन्तु पर के साथ एकत्वबुद्धि कर्त्ताबुद्धि, शुभराग से धर्म होता है, शुभराग हितकर है- ऐसी मान्यता ही एकमात्र दुख का कारण है । सन्यग्दर्शन सुख का कारण है । 4
SR No.010122
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages175
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy