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________________ (१४२ ) घन्य धन्य सिद्धो की महिमा, नाश किया ससार । निज स्वभाव से सिद्ध पद पाया, अनुपम आगम अपार ||३|| जह से भिन्न सदा तुम चेतन, करो भेद विज्ञान । सम्यग्दर्शन अगीकृत कर, निज को लो पहचान ॥४॥ रत्नत्रय की तरणी चढकर, चलो मोक्ष के द्वार । शुद्धातम का ध्यान लगाओ, हो जाओ भव पार ||५| ५१. राजमल पर्वया हमको भी बुलवालो स्वामी, सिद्धो के दरबार मे ॥टेका। जीवादिक सातों तत्वो की, सच्ची श्रद्धा हो जाये। भेद शान से हमको भी प्रभु, सम्यकदर्शन हो जाये ॥ मिथ्यातम के कारण स्वामी, हम डूबे ससार मे ॥१॥ आत्म द्रव्य फा ज्ञान करें हम, निज स्वभाव मे आ जायें। रत्नयय की नाव बैठकर, मोक्षभवन को पा जाये ॥ पर्यायो को चकाचौन्ध से, वहते हैं मझवार मे ॥२॥ ५२. (तर्ज तुम्हीं मेरे मन्दिर .) स्वयं अपना स्वामी, स्वय अपना गुरु, स्वय उपादेय है, स्वय उपादेय है।।टेक।। बहुत जीव देखे कोई सुखी ना, परम सुख अनुभव कोई करे ना। स्वानुभव करले अन्तर की चीज है, भेदज्ञान करले भव चला जाय रे ॥१॥ वाहर की क्रिया तो एक सी होती है, सम्यकदृष्टि की दृष्टि अलग है। मिथ्यादृष्टि माने में सब का करता, सम्यकादष्टि माने में सिर्फ ज्ञाता ॥२॥ शास्त्र जो लिखे व्यवहार व निश्चय से, अभूतार्य व्यवहार भूतार्थ निश्चय है ।
SR No.010122
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages175
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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