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________________ ( १३७ ) 'घानत' जे भव सुख चाहत हैं, तिनको यह अनुसरना रे । सोऽह ये दो अक्षर जप के, भवोदधि पार उतरना रे ॥३॥ ४३. न्यामत सदा सन्तोष कर प्राणी, अगर सुख से रहया चाहे । घटा दे मन की तृष्णा को, अगर अपना मला जाहे ॥टेक।। आग मे जिस कदर ईधन, पडेगा ज्योति ऊँची हो। बढा मत लोभ को तृष्णा, अगर दुख मे बचा चाहे ॥१॥ वही धनवान है जग मे, लोभ जिसके नही मन मे । वह निर्धन रक होता है, जो पर धन को हरा चाहे ॥२॥ दुखी रहते हैं वे निशदिन, जो आरत ध्यान करते हैं । न कर लालच अगर, आजाद रहने का मजा चाहे ॥३॥ बिना मांगे मिले मोती, 'न्यामत' देख दुनिया मे। भीख मांगे नही मिलती, अगर कोई गहा चाहे ॥४॥ ४४ मेरा आज तलक प्रभु करुणापति थारे चरणो मे जियरा गया ही नही । मैं तो मोह की नीद मे सोता रहा मुझे तत्वो का दरस भया नही ।।टेका। मैंने आतम बुद्धि बिसार दई, और ज्ञान की ज्योति विगाड लई । मुझे कर्मो ने ज्यो त्यो फसा ही लिया, थारे चरणो मे आन दिया ही नहीं ॥शा प्रभु नरको मे दु.ख मैंने सहे, नही जायें प्रभु अव मुझसे कहे । मुझे छेदन भेदन सहना पडा, और खाने को अन्न मिला ही नही ॥२॥
SR No.010122
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages175
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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