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________________ ( १३६ ) प्रभु का नाम नही लीना, उमर सारी वितादी यूं । बुलावा मौत का आया, चखो सब स्वाद निज फलका ॥ २॥ -सिफारिश भी नही चलती, किसी की मौत के आगे । राम रावण बली हारे, पता जिनका न था बल का ॥३॥ विजय गर मृत्यु पर चाहो, करो निज आत्म का चिन्तन । ज्ञान का दीप जागेगा, दिखेगा मार्ग शिवपुर का ||४|| ४१. भैया परदेशी प्यारे ! कौन है देश तुम्हारा ॥ टेक ॥ कौन असल मे ग्राम तुम्हारा, कौन जगह घर द्वारा । -कीन तुम्हारे मात पिता हैं, करो रूप विस्तारा ॥१॥ असख्य प्रदेशी गाँव हमारा, सम्यग्दर्शन द्वारा । ज्ञाता दृष्टा मात-पिता मम, अनन्त गुण परिवारा ॥२॥ अवगुण अपने आप सुधारो, गुरू का लेय सहारा । और न कोई मित्र जगत मे, पार लगावन हारा ||३|| देख दोप निज दूर करो सव, रहो कपट से न्यारा । अहँकार आने नही पावे, समझो तभी किनारा ॥४॥ विपय- कषाय है दुश्मन सारे, करो न प्रेम पसारा । भोग भोगना मुख स्वरूप का, सुखाभास पर धारा।।५।। धन्य भाग सब नर नारी का, पाया नर भव प्यारा । आतम का उपदेश सुनाते, 'भया' करो सुधारा ||६|| ४२ घानतराय आतम अनुभव करना रे भाई, आतम अनुभव करना रे । जब लौं भेदभाव नही उपजे, जन्म मरण दुख भरना रे ॥ टेक ॥ आतम पढ नव तत्व वखाने, व्रत तप सयम आतम ज्ञान बिना नहि कारज, योनी सकट धरना रे । मिथ्यातम को जिन्हें उपजना सकल ग्रन्थ दीपक हैं भाई, कहा कहे ते अन्ध पुरूष को, परना रे ॥१॥ हरना रे । मरना रे || २ ||
SR No.010122
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages175
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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