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________________ (१०) रूप ही नही मान लेना क्योकि भेद तो समझाने के अर्थ किये हैं। निश्चय से आत्मा अभेद ही है । उस ही को जीववस्तु मानना । सज्ञासख्या-लक्षण आदि से भेद कहे सो कथन मात्र ही है। परमार्थ से द्रव्यगुण भिन्न-भिन्न नहीं है, ऐसा ही श्रद्धान करना। इस प्रकार भेदरूप व्यवहारनय अगीकार करने योग्य नहीं है। प्रश्न २६-व्यवहार बिना निश्चय का उपदेश कैसे नहीं होता? इसके तीसरे प्रकार को समझाइये। उत्तर-निश्चय से वीतराग भाव मोक्ष मार्ग है। उसे जो नही पहचानते उनको ऐसे ही कहते रहे तो वे कुछ समझ नही पाये। तब उनको तत्त्व श्रद्धान ज्ञानपूर्वक, परद्रव्य के निमित्त मिटने की सापेक्षता द्वारा व्यवहारनय से व्रत-शील-सयमादि को वीतराग भाव के विशेष बतलाये तब उन्हे वीतरागभाव की पहचान हुई । इस प्रकार व्यवहार विना निश्चय मोक्ष मार्ग के उपदेश का न होना जानना । प्रश्न ३०-प्रश्न २६ मे व्यवहारनय से मोक्ष नार्ग को पहचान कराई। तब ऐसे व्यवहारनय को कैसे अंगीकार नहीं करना चाहिये? सो समझाइए। उत्तर-परद्रव्य का निमित्त मिलने की अपेक्षा से व्रत-शोलसयमादिक को मोक्षमार्ग कहा । सो इन्ही को मोक्षमार्ग नहीं मान लेना, क्योकि (१) परद्रव्य का ग्रहण-त्याग आत्मा के हो तो आत्मा परद्रव्य का कर्ता-हर्ता हो जावे । परन्तु कोई द्रव्य किसी द्रव्य के आधीन नहीं है। (२) इसलिए आत्मा अपने जो रागादिक भाव है, उन्हे छोड कर वीतरागी होता है । (३) इसलिए निश्चय से वीतराग भाव ही मोक्षमार्ग है। (४) वीतराग भावो के और व्रतादिक के कदाचित कार्य-कारणपना (निमित्त-नैमित्तिकपना) है, इसलिए, व्रतादि को मोक्षमार्ग कहे सो कथनमात्र ही है । परमार्थ से बाह्यक्रिया
SR No.010120
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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