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________________ पृथ्वीकायादिकरूप जीव के विशेष किये, तव मनुष्य जीव है, नारको जीव है । इत्यादि प्रकार सहित उन्हे जीव की पहचान हुई । इस प्रकार व्यवहार बिना (शरीर के सयोग बिना) निश्चय के (आत्मा के) उपदेश का न होना जानना। प्रश्न २६-प्रश्न २५ मे व्यवहारनय से शरीरादिक सहित जीव की पहचान कराई तब ऐसे व्यवहारनय को कैसे अगीकार नहीं करना चाहिए ? सो समझाइए। उत्तर-व्यवहारनय से नर-नारक आदि पर्याय ही को जीव कहा सो पर्याय ही को जीव नही मान लेना। वर्तमान पर्याय तो जीवपुद्गल के सयोगरूप है। वहा निश्चय से जीव द्रव्य भिन्न है-उस ही को जीव मानना । जीव के सयोग से शरीरादिक को भी उपचार से जीव कहा सो कथनमात्र ही है। परमार्थ से शरीरादिक जीव होते नहीं, ऐसा ही श्रद्धान करना। इस प्रकार व्यवहारनय (शरीरादि वाला जीव) अगीकार करने योग्य नहीं है। प्रश्न २७-व्यवहार बिना (भेद बिना) निश्चय का (अभेद आत्मा का) उपदेश कैसे नहीं होता? इस दूसरे प्रकार को समझाइये। उत्तर-निश्चय से आत्मा अभेद वस्तु है। उसे जो नही पहचानते उनसे इसी प्रकार कहते रहे तो वे कुछ समझ नही पाये । तब उनको अभेद वस्तु मे भेद उत्पन्न करके ज्ञान-दर्शनादि गुण-पर्यायरूप जीव के विशेष किये। तब जानने वाला जीव है, देखने वाला जीव है। इत्यादि प्रकार सहित जीव की पहचान हुई । इस प्रकार भेद बिना अभेद के उपदेश का न होना जानना । प्रश्न २८-प्रश्न २७ मे व्यवहारनय से ज्ञान-दर्शन भेद द्वारा जीव को पहचान कराई। तब ऐसे भेदरूप व्यवहारनय को कैसे अंगीकार नहीं करना चाहिये ? सो समझाइये। उत्तर--अभेद आत्मा मे ज्ञान-दर्शनादि भेद किये सो उन्हे भेद
SR No.010120
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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