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________________ ( ८२ ) (२१) झूठे देव-गुरु-धर्म को सच्चेवत् समझना अर्थात् सच्चे देवगुरु-धर्म की श्रद्धा न होना यह मिथ्यादर्शन है। [गा० १८१६] (२२) धन, धान्य, सुता आदि की प्राप्ति के लिए देवी आदि को पूजना या अनेक कुकर्म करना यह मिथ्यादर्शन है। [गा० १८१७] प्रश्न ६८-आपने मिथ्यात्व के जो २२ लक्षण बताये हैं यह तो पंचाध्यायी के ही बताये हैं क्या और किसी शास्त्र में नहीं हैं ? उत्तर-भाई चारो अनुयोगो के सव शास्त्रो मे यही लक्षण बताये है। प्रश्न ६९-श्री प्रवचनसार मे मिथ्यात्व का क्या लक्षण बताया उत्तर-(१) (आ) पदार्थों का अयथाग्रहण, (आ) तिर्यच-मनुष्यो के प्रति करुणाभाव, (इ) विपयो की सगति अर्थात् इष्ट विषयो मे प्रोति और अनिष्ट विपयो मे अप्रीति यह सब मोह के चिन्ह (लक्षण) गा० ८५] (२) (अ) जीव के द्रव्य-गुण-पर्याय सम्बन्धी मूढभाव वह मोहभाव है। (आ) उससे आच्छादित वर्तता हुआ जीव राग-द्वेष को प्राप्त करके क्षुब्ध होता है । (गा० ८३) (३) जो श्रमण अवस्था मे इन अस्तित्व वाले विशेष सहित पदार्थों की श्रद्धा नहीं करता वह श्रमण नही है उसे धर्म प्राप्त नही होता है। गा० ६१] (४) आगमहीन श्रमण निज और पर को नही जानता वह जीवादि पदार्थों को नहीं जानता हुआ भिक्षु द्रव्य-भावकर्मों को कैसे क्षय करे ? [गा० २३३] (५) द्रव्यलिंगी मुनि को ससार तत्व कहा है। [गा० २७१] (६) सूत्र सयम और तप से सयुक्त होने पर भी (वह जीव) 'जिनोक्त आत्म प्रधान पदार्थों का श्रद्धान वही करता तो वह श्रमण नही है। [गा० २६४]
SR No.010119
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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