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________________ ( ६१ ) की दृष्टि करके साधक बनकर क्रम से सिद्धदशा की प्राप्ति कर लेता है | प्रश्न १६१ - प्रत्येक द्रव्य नित्य-अनित्यादि अनेक धर्म स्वरूप है इसको सुनकर अपात्र मिथ्यादृष्टि क्या जानता है और क्या करता है ? उत्तर- प्रत्येक द्रव्य - नित्य - अनित्यादि अनेक धर्म स्वरूप कैसे हो सकता है ? कभी नही हो सकता है, क्योकि एक ही समय नित्य और अनित्य नही हो सकता । इस प्रकार मिथ्या मान्यता की पुष्टि करके चारो गतियो मे घूमता हुआ निगोद चला जाता है । प्रश्न १६२ -- यह नित्य- अनित्यादि अनेक धर्म प्रत्येक द्रव्य में हो लगते हैं या और किसी मे भी लगते हैं ? उत्तर - प्रत्येक द्रव्य मे तथा प्रत्येक द्रव्य के एक-एक गुण मे भी नित्य-अनित्यादि अनेक धर्म लग सकते हैं । इससे प्रत्येक द्रव्य-गुण को स्वतन्त्रता का ज्ञान होता है । प्रश्न १६३ - एक अनेक पर सम्यक् अनेकान्त मिय्या अनेकान्त आदि सत्र प्रश्नोत्तरो लगाकर वताओ ? उत्तर - प्रश्न १७८ से १६२ तक के अनुसार उत्तर दो । - प्रश्न १६४ -तत्-असत् पर सम्यक् अनेकान्त मिथ्या अनेकान्त श्रादि सव प्रश्नोत्तरों लगाकर बताओ ? उत्तर - प्रश्न १७८ से १६२ तक के अनुसार उत्तर दो । प्रश्न १६५ - तत् तत् पर सम्यक् अनेकान्त मिथ्या अनेकान्त यदि सत्र प्रश्नोत्तरी लगाकर बताओ ? उत्तर - प्रश्न १७८ मे १९२ तक के अनुसार उत्तर दो। प्रश्न १६६ - भेद - अभेद पर सम्यक् अनेकान्त मिथ्या अनेकान्त आदि सव प्रश्नोत्तरो लगाकर बताओ ? उत्तर - प्रश्न १७८ से १९२ तक के अनुसार उत्तर दो ।
SR No.010119
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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