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________________ ( ५५ ) कल्पना आदि अनेक हैं । ऐसा अपनी आत्मा का एक अनेकात्मक स्थिति जानकर पात्र जीव तुरन्त अपने द्रव्य क्षेत्र - काल-भाव से अस्ति, तत्, नित्य, एक स्वभाव की ओर दृष्टि करके सम्यग्दर्शनादि की प्राप्ति करके क्रम से अपने मे एकाग्रता करके परम मोक्ष लक्ष्मी का नाथ बन जाता है । प्रश्न १६३ - प्रमाण सप्तभंगी और नयसप्नभंगी का ज्ञान किसको होता है और किसको नहीं होता है ? उत्तर - ज्ञानियों को ही इन दीनो का ज्ञान वर्तता है । मिथ्यादृष्टि द्रव्यलिंगी मुनि आदि को इनमे से एक का भी ज्ञान नही वर्तता है । प्रश्न १६४ - एकान्त के कितने भेद हैं ? → उत्तर- दो भेद हैं, सम्यक् एकान्त और मिथ्या एकान्त । प्रश्न १६५ – सम्यक् एकान्त और मिय्या एकान्त क्या है, जरा खोलकर समझाइये ? उत्तर- (१) अपने स्वरूप से अस्तित्व और पर रूप से नास्तित्व आदि जो वस्तु स्वरूप है, उसकी अपेक्षा रखकर प्रमाण द्वारा जाने हुए पदार्थ के एक देश का ( पक्ष का ) विषय करने वाला नय सम्यक् एकान्त है । (थोडे मे सापेक्षनय सम्यक् एकान्त है ।) (२) किसी वस्तु के एक धर्म का निश्चय करके उसमे रहने वाले अन्य धर्मों का सर्वथा निषेध करना वह मिथ्या एकान्त है । ( निरपेक्ष नय मिथ्या एकान्त है 1 ) प्रश्न १६६ - सम्यक् एकान्त के और मिथ्या एकान्त के दृष्टान्त दोजिए ? उत्तर - (१) “सिद्ध भगवान एकान्त सुखी है" ऐसा जानना वह सम्यक् एकान्त है, क्योकि "सिद्ध जीवो को विल्कुल दुख नही है" ऐसा गर्भित रूप से उसमे आ जाता है । और 'सर्वजीव एकान्तः सुखी हैं" ऐसा जानना मिथ्या एकान्त है, क्योकि वर्तमान मे अज्ञानी जीव दुखी है, इसका उसमे अस्वीकार है । ( २ ) " सम्यग्ज्ञान ही धर्म है "
SR No.010119
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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