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________________ ( ४६ ) जितना सत् है, प्रत्येक गुण की अपेक्षा भी वह उतना ही है। समस्त । गुणो की अपेक्षा भी वह उतना ही है। इस अपेक्षा सत् भाव से । एक है। प्रश्न १३२-सत् के अनेक होने मे क्या युक्ति है ? उत्तर-व्यतिरेक बिना अन्वय पक्ष नहीं रह सकता अर्थात अवयवो के अभाव मे अवयवी का भी अभाव ठहरता है । अत अवयवो की अपेक्षा से सत् अनेक भी है। प्रश्न १३३--द्रव्य से सत् अनेक कैसे हैं ? उत्तर--गुण अपने लक्षण से है पर्याय अपने लक्षण से है। प्रत्येक अवयव अपने-अपने लक्षण से भिन्न-भिन्न है, प्रदेशभेद नही है, अत सत् द्रव्य से अनेक है। प्रश्न १३४-क्षेत्र से सत् 'अनेक' कैसे हैं ? उत्तर- प्रत्येक देशाश का सत भिन्न-भिन्न है। इस अपेक्षा क्षेत्र से अनेक भी है, सर्वथा नहीं है। प्रश्न १३५---काल से सत 'अनेक' कैसे हैं ? उत्तर-पर्याय दृष्टि से प्रत्येक काल (पर्याय) का सत् भिन्नभिन्न है । इस प्रकार सत काल की अपेक्षा अनेक है।। . प्रश्न १३६-भाव की अपेक्षा सत् 'अनेक' कैसे हैं ? उत्तर-प्रत्येक भाव (गुण) अपने-अपने लक्षण से भिन्न-भिन्न हैं प्रदेश भेद नही है । इस प्रकार सत् भाव की अपेक्षा अनेक है। प्रश्न १३७-एक-अनेक पर अनेकान्त किस प्रकार लगता है ? उत्तर-आत्मा द्रव्य की अपेक्षा एक है अनेक नही है, यह अनेकान्त हैं। और आत्मा गुण-पर्यायो की अपेक्षा अनेक है एक नहीं है, यह अनेकान्त है। प्रश्न १३८-आत्मा द्रव्य की अपेक्षा एक भी है और अनेक भी है. क्या यह अनेकान्त नहीं है ? उत्तर-यह मिथ्या अनेकान्त है ।
SR No.010119
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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