SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 247
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( 237 ) श्री प्रवचनसार जी सूत्र 242 की टीका मे कहा है "ज्ञेयज्ञाततत्त्वतथाप्रतीतिलक्षणेन सम्यग्दर्शनपर्यायेण" अर्थ-ज्ञेयतत्त्व और ज्ञातृतत्त्व की तथा प्रकार (जैसी है वैसी ही, यथार्थ) प्रतीति जिसका लक्षण है वह सम्यग्दर्शन पर्याय है. ... / यहा सम्यग्दर्शन रूप असली पर्याय का निरूपण है / स्व पर श्रद्धान लक्षण से उसे निरूपण किया है। यह लक्षण हमारे नायक ने सूत्र 1178 से 11.61 मे निरूपण किया है। श्री दर्शनप्राभूत मे कहा है जीवादी सहहणं सम्मत्त जिणवरेहि पण्णत्त / ववहारा णिच्छयदो अप्पाणं हवइ सम्मत्त // 20 // ___ अर्थ-जीव आदि कहे जे पदार्थ तिनिका श्रद्धान सो तो व्यवहार ते सम्यक्त्व जिन भगवान ने कहा है, बहुरि निश्चयतै अपना आत्मा ही का श्रद्धान सो सम्यक्त्व है। वहा व्यवहार सम्यक्त्व तो विकल्प रूप है जो निश्चय सम्यग्दर्शन का अविनाभावी चारित्र गुण का विकल्प है। इसका निरूपण हमारे नायक ने सूत्र 1178 से 1191 तक किया है। नीचे की पक्ति मे सम्यक्त्व का स्वात्मानुभूति लक्षण है जिसको निश्चय सम्यक्त्व कहा है इसका निरूपण यहाँ सूत्र 1155 से 1177 तक 23 सूत्रो मे किया है। श्रीपुरुषार्थसिद्धयुपाय जी मे कहा है जीवाजीवादीनां तत्त्वार्थानां सदैव कर्तव्यम् / श्रद्धानं विपरीताऽभिनिवेशविविक्तमात्मरूप तत् // 22 // अर्य-जीव अजीव आदि नी तत्त्वो का श्रद्धान सदा करना चाहिये / वह श्रद्धान विपरीत अभिप्राय से रहित हैं और वह 'आत्मरूप' है। आत्मरूप राग को नही कहते / शुद्ध भाव को ही कहते हैं। यह लक्षण श्रद्धा गुण की असली सम्यग्दर्शन पर्याय का है। आरोपित नही
SR No.010119
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy