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________________ ( 236 ) यह है कि नौ तत्व मे अन्वय रूप से पाये जाने वाले सामान्य का अनुभव सम्यग्दर्शन है। यह सम्यग्दर्शन का स्वात्मानुभूति रूप अनात्मभूत 'लक्षण है, जिसका हमारे नायक श्री पचाध्यायीकार ने सूत्र न० 1155 से 1177 तक 23 सूत्रो मे विवेचन किया है। श्रीनियमसार जी मे कहा है अत्तागमतच्चाणं सद्दहणादो हवेइ सम्मत्त // 5 // विवरीयाभिणिवेसविवज्जियसहहणमेव सम्मत्त // 51 // चलमलिगमगाढत्तविवज्जियसद्दणमेव सम्मत्त // 52 // अर्थ-आप्त, आगम और तत्त्वो की श्रद्धा से सम्यक्त्व होता है. // 5 // निपरीत अभिनिवेश (अभिप्राय-आग्रह) रहित श्रद्धान वह ही सम्यक्त्व है // 52 // चलता, मलिनता और अगाढता रहित श्रद्धान वह ही सम्यक्त्व है // 52 // इसमे व्यवहार सम्यग्दर्शन का वर्णन है जो इस ग्रन्थ मे सूत्र 1178 से 1181 तक 14 सूत्रो मे है। श्री पचास्तिकाय पन्ना 166 श्री जयसेन टीका में कहा है एवं जिणपण्णत सद्दहमाणस्य भावको भावे / पुरिसस्साभिणिबोधे दसणसहो हरिजुत्ते // 1 // एवं जिनप्रज्ञप्तान् श्रद्दधतः भावतः भावान् / पुरुषस्य आभिनिवोघे दर्शनशब्दः भवति युक्तः।। अर्थ-इस प्रकार जिनेन्द्र भगवान के द्वारा कहे गये पदार्थों को भाव पूर्वक श्रद्धान करने वाले पुरुष के मति (श्रुत) ज्ञान मे दर्शनशब्द प्रयुक्त होता है। इस लक्षण मे निरूपण तो श्रद्धा गुण की असली सम्यग्दर्शन पर्याय का है किन्तु वह नीची भूमि वाले सम्यग्दृष्टि के ज्ञान को सहचर करके निरूपण किया गया है क्योकि लेखक को भागे सम्यग्दृष्टि के ज्ञान के ज्ञेयभूत नौ पदार्थों का वर्णन करना था और उनकी भूमिका रूप यह सूत्र रचा गया है। इसका निरूपण हमारे नायक ने सूत्र न० 1178 से 1161 तक 14 सूत्रो मे किया है।
SR No.010119
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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