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________________ ( 218 ) प्रश्न १४८-उपचरित असदभूत व्यवहार नय का मर्म बताओ? उत्तर-साधक ऐसा जानता है कि अभी मेरी पर्याय मे विकार होता है / उसमे व्यक्त राग-बुद्धि पूर्वक का राग-प्रगट ख्याल मे लिया जा सकता है ऐसे बुद्धिपूर्वक के विकार को आत्मा का जानना यह उपचरित असद्भूत व्यवहार नय है / प्रश्न १४६-अनुपचरित असदभूत व्यवहार नय का मर्म बताओ? उत्तर-जिस समय बुद्धिपूर्वक का विकार है उस समय अपने ख्याल मे न आ सके-ऐसा अवुद्धिपूर्वक का विकार भी है, उसे जानना वह अनुपचरित असद्भूत व्यवहार नय है / प्रश्न १५०–सम्यक् नय का क्या स्वरूप है ? उत्तर-जो नय तद्गुणसविज्ञान सहित (जीव के भाव वे जीव के तद्गुण हैं तथा पुद्गल के भाव वे पुद्गल के तद्गुण हैं-ऐसे विज्ञान सहित हो) उदाहरण सहित हो, हेतु सहित और फलवान (प्रयोजन वान्) हो वह सम्यक् नय है / जो उससे विपरीत नय है वह नयाभास (मिथ्या नय) है क्योकि पर भाव को अपना कहने से आत्मा को क्या साध्य (लाभ) है (कुछ नही)। प्रश्न १५१-नयाभास का क्या स्वरूप है ? उत्तर–जीव को पर का कर्ता-भोक्ता माना जाय तो भ्रम होता है व्यवहार से भी जीव पर कर्ता भोक्ता नही है। व्यवहार से आत्मा राग का कर्ता भोक्ता है क्योकि राग वह अपनी पर्याय का भाव है इसलिए उसमे तद्गुण सविज्ञान लक्षण लागू होता है। जो उससे विरुद्ध कहे वह नयाभास (मिथ्या नय) है।। प्रश्न १५२-सम्यक् नय और मिथ्या नय की क्या पहचान है ? उत्तर-जो भाव एकधर्मी का हो, उसको उसी का कहना तो सच्चा नय है और एक धर्मी के धर्म को दूसरे धर्मी का धर्म कहना मिथ्या नय है। जैसे राग को आत्मा का कहना तो सम्यक् नय है और वर्ण को आत्मा का कहना मिथ्या नय है /
SR No.010119
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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