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________________ ( 166 ) धर्म दृष्टियो से काम लेता है (1) जगत मे अभेद को, बिना भेद कोई समझ नहीं सकता। अत सबसे प्रथम जीव को भेद भाषा से ऐसा परिज्ञान कराते है कि द्रव्य है, गुण है, पर्याय है। प्रत्येक का लक्षण सिखलाते है कि जो गुण पर्यायो का समूह है वह द्रव्य है इत्यादि रूप से। इस भेद रूप पद्धति को व्यवहार नय कहते है। यह दृष्टि द्रव्य को खण्ड-खण्ड कर देती है / इस दृष्टि का कहना है कि द्रव्य जुदा है, गुण जुदा है, पर्याय जुदा है। यहा तक कि एक-एक गुण, उसका एकएक अविभाग प्रतिछेद और एक-एक प्रदेश तक जुदा है / यह सब कुछ सीखकर शिष्य को ऐसा भान होने लगता है कि जिस प्रकार एक वृक्ष मे फल, फूल, पत्ते, स्कव, मूल, शाखा जुदी-जुदो सत्ता वाले हैं और उनका मिलकर एक सत्ता वाला वृक्ष बना है, उस प्रकार द्रव्य मे अनेक अवयव हैं और उनका मिलकर बना हुआ एक द्रव्य पदार्थ है अथवा जैसे अनेक भिन्न-भिन्न सत्तावाली दवाइयो से एकगोली बनती है वैसे गुण पर्यायो से बना हुआ द्रव्य है किन्तु पदार्थ ऐसा है नही / अत यह तो पदार्थ का गलत ज्ञान हो गया। तब (2) आचार्यों को दूसरी दृष्टि से काम लेना पड़ा और उसको समझाने के लिए वे शिष्य से कहने लगे कि देख भाई यह वता कि आम मे कितने गुण हैं वह सोच कर बोला चार / स्पर्श रस गध और वर्ण / तव गुरु महाराज कहने लगे ठोक पर अब ऐसा करो कि रस तो हमे दे दो और रूप तुम ले लो, स्पर्श राम को दे दो और गध श्याम को। अव शिष्य चक्कर में पड़ा और कहने लगा कि महाराज यह तो नही हो सकता क्योकि आम तो अखण्ड पदार्थ है। उसमे ऐसा होना असभव है। बस भाई जैसे उस आम मे चारो का लक्षण जुदा-जुदा किया जाता है पर भिन्न नहीं किये जा सकते ठीक उसी प्रकार यह जो द्रव्य है इसमे ये गुण पर्याय केवल लक्षण भेद से भिन्न-भिन्न हैं वास्तव मे भिन्न नही किए जा सकते। यह तो तुझे अखण्ड सत् का परिज्ञान कराने का हमारा प्रयास था, एक ढग था। वास्तव मे वह भेद रूप नही है अभेद है। अब शिष्य को आँखें
SR No.010119
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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