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________________ ( 158 ) उत्तर-दिवान जी का -मैं उसका स्वामी नहीं, यह आती दिन रेन / लोग भरम ऐसी गिने-याते नीचे नैन / प्रश्न ४६-प्रवचनसार के 47 नयो का सच्चा किसको ज्ञान होता है और किसको नहीं होता है ? उत्तर-ज्ञानियो को ही होता है। अज्ञानियो को नही होता है। क्योकि नय श्रुतज्ञान प्रमाण का अश है। प्रमाण ज्ञान को प्रमाणता तभी प्राप्त होती है जव अन्तरदृष्टि मे विभाव तथा पर्याय भेदो से रहित अपने शुद्धात्मरूप ध्रुव ज्ञायक की श्रद्धा के अवलम्बन का जोर सतत वर्तता हो। ध्र व ज्ञायक स्वभाव के अवलम्बन का बल ज्ञानी को सदैव वर्तता होने के कारण उसका ज्ञान सम्यक प्रमाण है और ज्ञानी को ही क्रियानय, ज्ञाननय, व्यवहारनय तथा निश्चयनयादि नयो द्वारा वर्णित धर्मों का सच्चाज्ञान होता है / अज्ञानी मिथ्यादृष्टियो को नही होता है क्योकि अज्ञानी को निज शुद्धात्मरूप ध्रुव ज्ञायक स्वभाव की प्रतीति ना होने से उसका ज्ञान अप्रमाण है मिथ्या है। प्रश्न ४७-ज्ञानी की दशा कैसी होती है ? उत्तर-(१) ज्ञानी की परिणति सहज रूप होती है। समय-समय भेद ज्ञान को याद करना नहीं पड़ता। परन्तु ज्ञानी का तो सहज रूप परिणमन हो गया है। जिससे आत्मा मे एक धारा परिणमन हुआ ही करता है / (2) किसको अपना अनुभव हो जाता है। वह सब जीवो को चैतन्यमयी भगवान ही देखता है। (3) ज्ञानी की दृष्टि अपने स्वभाव पर ही होती है। स्वानुभूति के समय या सविकल्प दशा के समय बाहर उपयोग होवे तो भी दृष्टि स्वभाव से छूटती नही है / (4) जैसे-वृक्ष का मूल पकडने से सब हाथो मे आ जाता है / वैसे ही ज्ञायक पर दृष्टि जाते ही सब हाथ मे आ जाता है / जिसने मूल स्वभाव की दृष्टि मे ले लिया चाहे जैसे प्रसगो मे हो शान्ति वर्तगी और ज्ञाता दृष्टारूप ही रहेगा। (5) जैसे-आकाश मे पतग उडती है परन्तु डोरा हाथ मे ही रहता है, उसी प्रकार विकला आते है परन्तु
SR No.010119
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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