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________________ ( 157 ) साम्यमिति चेन्न, ज्ञेयप्रमाण ज्ञानात्मकानुभवस्य ज्ञानप्रमाण त्वा विरोधात् / इति शब्दः ऐतवदर्थे दर्शनावरणीय स्य कर्मण ऐतावत्य एव प्रकृतयो नाधिका इत्यर्थ / अर्थ -केवलज्ञान ही अपने आपका और अन्य पदार्थो का जानने वाला है इस प्रकार मानकर कितने हो लोग केवलदर्शन के अभाव को कहते हैं। किन्तु उनका यह कथन युक्तिसगत नहीं है क्योकि केवलज्ञान स्वय पर्याय है। पर्याय से दूसरी पर्याय होती नहीं, इसलिए केवलज्ञान के स्व-पर के जानने वाली दो प्रकार की शक्तियो का अभाव है। यदि एक पर्याय से दूसरी पर्याय का सदभाव माना जावेगा तो आने वाला अनवस्था दोष किसी के द्वारा भी नहीं रोका जा सकता / इसलिए आत्मा ही स्वपर को जाननेवाला है ऐसा निश्चय करना चाहिए। उनमे स्व प्रतिभास को केवलदर्शन कहते हैं और पर प्रतिभास को केवलज्ञान कहते हैं। __शका-उक्त प्रकार की व्यवस्था मानने पर केवलज्ञान व केवलदर्शन मे समानता कैसे रह सकेगी? समाधान नही, क्योकि ज्ञेयप्रमाण ज्ञानात्मक आत्मानुभव के ज्ञान के प्रमाण होने मे कोई विरोध नही है / प्रश्न ४४-~-कैसी भगवान की मूर्ति को वन्दनीय कहा है ? उत्तर-भगवत् जिनसेनाचार्य ने जिन सहस्रनाम स्तोत्र मे कहा है कि - "व्योममूर्तिरमूत्मिा, निर्लेपो निर्मलोऽचल / सोममूर्ति सुसौम्यात्मा, सूर्यमतिर्महाप्रभ. // 7 // प्रश्न ४५-दिवान अमरचन्द जयपुर में बड़े दानी थे, ऐसा दान करते थे किसी को पता भी ना चले-एक बार उनके विषय में दरबार मे पूछा कि: "कहां सीखे दीवान जी, ऐसी देनी देन / ज्यो ज्यो कर ऊंचे भए, त्यो त्यो नीचे नैन /
SR No.010119
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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