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________________ (146 ) तेरे पान अनन्त गुणों का अभेद पिण्ड तन्य रत्नाकर है। तेरे चैतन्य रत्नावर के सामने नसार या वैभव नृण समान है और तेरे चैतन्य ग्रलाकार की अपार कीमत है। तु अपने चैतन्य रत्नाकर के स्वमन्मुख हो, तो तु अपने वैभव की पहिचान हो / इतना सुनते ही अनादिकाल फा अज्ञानी आदर्यचकित हो, म्बमन्मुख हुआ। अपनी आत्मा मे अमूप बना है, उने जानकर आनन्दित हुआ। तब पूज्य गुरुदेव के प्रति बहुमान आया और बोला, है पूज्य गुरुदेव / ऐसा मात्मस्वभाव तो अनादिकाल से मेरे पास ही था, परन्तु मुझे इसकी खबर नहीं थी। इसलिए मैं सयोग और योगी भावो में पागल हो रहा था। अब आपकी परमपा ने मुझे अपने चैतन्य रत्नाकर का भान हुआ, अनन्त संसार मिटा, आप धन्य हैं / धन्य हैं / यद्यपि नात्मा मे अनन्त शक्तियाँ हैं फिर भी उसकी पहिचान ना होने से उसकी कोई कोमती नही हैऐसा भगवान की वाणी में आया है। प्रश्न १४---सिद्ध समान स्वयं चैतन्य रत्नाकर होने पर भी जो उसको पहिचान नहीं करता, परन्तु संसार के कार्यों मे अपनी चतुराई को लगाता है-यह जीव किसके योग्य है ? उत्तर-जैसे-राजा के दरबार में कोई परदेशी एक बार एक हीरा लेकर आया और राजा से कहा, आप अपने जीहरियो से इस हीरे की कीमत कराओ। शहर के तमाम जोहरो इकट्ठे हुए। परन्तु उस हीरे की कीमत ना बता सके। राजा को बड़ी चिन्ता हुई कि इससे तो हमारे राज्य की वदनामी होगी। आखिरकार तजुर्बेकार वृद्ध जौहरी को बुलाया। उस जौहरी ने हीरे को देखकर उसका सही मूल्य वता दिया / तब राजा ने परदेशी से पूछा, क्या तुम्हारे हीरे की कीमत ठीक बताई है ? उसने कहा, महाराज विल्कुल ठीक बताई है। राजा ने प्रसन्न होकर दिवान को हुक्म दिया है कि जौहरी को इनाम दो। दिवान जी धर्म का जानने वाला था। उसने सोचा कि अव वृद्ध जौहरी के लिए हित का अवकाश है / दिवान ने जौहरी से कहा, जोहरी जी ]
SR No.010119
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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