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________________ ( ६२ ) प्रश्न १०२-सम्यग्दर्शन के बिना अणुव्रत-महावतादि साधन को क्या बताया है ? उत्तर-अन्तरग परिणाम नहीं है और स्वर्गादिक की वाछा से साधते है, सो इस प्रकार साधने से तो पाप वन्ध होता है। (मोक्षमार्ग प्रकाशक) प्रश्न १०३--आपने छह निमित्तो के अन्यथा रूप प्रवृत्ति को गृहीतमिथ्यात्व कहा है। परन्तु शास्त्रो मे (१) एकान्त, (२) विनय, (३) सशय, (४) विपरीत, (५) अज्ञान को गृहीतमिथ्यात्व कहा है, ऐसा क्यो कहा है ? उत्तर-गृहीत मिथ्यात्व के पांच प्रकार प्रवर्ता हैं इसलिए प्रवर्ता की अपेक्षा गृहीत मिथ्यात्व के मूलभेद पाँच प्रकार किये है। उत्तर भेद असख्यात लोक प्रमाण है । प्रश्न १०४-स्व क्या है और पर क्या है ? उत्तर-(१) अमूर्तिक प्रदेशो का पुंज, प्रसिद्ध ज्ञानादि गुणो का धारी, अनादिनिधन; वस्तु स्व है। (२) मूर्तिक पुद्गल द्रव्यो का पिण्ड, प्रसिद्ध ज्ञानादि गुणो से रहित, नवीन ही जिसका सयोग हुआ है ऐसे शरीरादिक ; पुद्गल पर है। जैसा स्व का स्वरूप है वैसा माने तो तुरन्त धर्म की प्राप्ति होती है। परन्तु अज्ञानी अनादि से पर को स्व मानता है और स्व को पर मानता है इसलिए चारो गतियो मे घूमता है। अब पात्र जीव को अपने स्व को स्व, और पर को पर जानकर मोक्ष रूपी लक्ष्मी का नाथ बनना चाहिए। प्रश्न १०५--आपने इतने विस्तार से गृहोत मिथ्यात्व और अगहीत मिथ्यात्व का स्वरूप क्यों समझाया है ? उत्तर-ऊपर कहे गये अनुसार मिथ्यात्व का स्वरूप जानकर सब जीवो को गृहीत मिथ्यात्व तथा अगृहीत मिथ्यात्व छोडना चाहिए क्योकि सब प्रकार के बन्ध का मूल कारण मिथ्यात्व है। मिथ्यात्व को
SR No.010119
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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