SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 100
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ६० ) चाहिए तो ऐसा कि-जैसे व्यापारी का प्रयोजन नफा है सर्व विचार कर जैसे-नफा बहुत हो वैसा करे, उसी प्रकार ज्ञानी का प्रयोजन वीतराग भाव है, सर्व विचार कर जैसे वीतराग भाव बहुत हो वैसा करे; क्योकि मूल धर्म वीतराग भाव है। [मोक्षमार्ग प्रकाशक] प्रश्न ६५-सम्यग्दर्शन के बिना कितने ही जीव जिनवर कथित अणुव्रत, महावतादि का पालन करते हैं, क्या वह जीव भी उल्टे निमित्तों में आते हैं ? उत्तर-हाँ भाई, वे भी उल्टे निमित्तो मे ही आते है क्योकि कुन्दकुन्द भगवान ने प्रवचनसार मे उन्हे ससारतत्व कहा है। प्रश्न ९६-सम्यग्दर्शन के बिना पदार्थ महाव्रतादि का साधन क्या है ? उत्तर-कितने ही जीव अणुव्रत-महाव्रतादिरूप यथार्थ आचरण करते है और आचरण के अनुसार ही परिणाम हैं, कोई माया-लोभादिक का अभिप्राय नही, अणुव्रत-महानतादि को धर्म जानकर मोक्ष के अर्य उनका साधन करते हैं, किन्ही स्वर्गादिक के भोगो की भी इच्छा नही रखते, परन्तु तत्त्वज्ञान पहले नही हुआ है। इसलिए आप तो जानते हैं कि मैं मोक्ष का साधन कर रहा हूँ, परन्तु जो मोक्ष का साधन है उसे जानते भी नही, केवल स्वर्गादिक ही का साधन करते है। (मोक्षमार्ग प्रकाशक) प्रश्न ६७-कुन्दकुन्दादि आचार्यों का क्या कहना है ? उत्तर-प्रथम तत्त्वज्ञान हो और पश्चात् चारित्र हो तो सम्यक चारित्र नाम पाता है। जैसे कोई किसान बीज तो बोये नही और अन्य साधन करे तो अन्न प्राप्ति कैसे हो ? घास-फूस ही होगा, उसी प्रकार अज्ञानी तत्त्व ज्ञान का तो अभ्यास करे नही और अन्य साधन करे, तो,मोक्ष की प्राप्ति कैसे हो ? देवपद आदि ही होगे। इसलिए पात्र जीवो को प्रथम जिनवर कथित तत्व का यथार्थ अभ्यास करके सम्यग्दर्शनादिक की प्राप्ति करने का आचार्यों का आदेश है।
SR No.010119
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy