SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 92
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रश्न (१६५)-जीवों में भव्य प्रभव्य का व्यवहार कहां तक है ? उत्तर-१४वें गुणरथान तक है। सिद्ध भगवान में भव्य प्रभव्य का भेद नही है अर्थात् वह भव्य-अभव्य से रहित है। प्रश्न (१६६)-संसारी के दो भेद कौन २ से है ? उत्तर-भव्य और प्रभव्य हैं ? प्रश्न (१६७ --भव्य का कोई भेद हैं ? उत्तर---एक दूरानदूर भव्य, एक निकट भव्य । प्रश्न (१६८)--अभव्य का कोई भेद है। उत्तर- जो कभी सुलटेगें ही नही (निगोद से कभी निकलेगे ही नहीं) वह अभव्य है। निगोद से निकलकर सुलटने की शक्ति होने पर भी कभी ना सुलटेगे वह अभव्य हैं। प्रश्न (१६६)-छदमस्थ का क्या अर्थ है ? उत्तर- ज्ञानदर्शन का प्रावरण रहे तबतक छदमस्थ है। प्रश्न (१७०)--छमदस्थ के कितने भेद हैं ? उत्तर-साधक और बाधक प्रश्न (१७१)--साधक कौन २ है उत्तर-चौथे गुणस्थान से १२वें गुणस्थान तक साधक है। प्रश्न (१७२ --बाधक कौन २ हैं ? उत्तर-निगोद से लगाकर चारों गति के जीव जवतक सम्यक्त्व की प्राप्ति ना हो तब तक बाधक है।
SR No.010118
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages211
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy