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________________ ( ७२ ) है जो नारक, तिर्यचादि गतियों में परिभ्रमण रुप दुःखों से श्रात्मा को छुटाकर उत्तम आत्मिक अविनाशी प्रतीन्द्रिय मोक्ष सुख में धारण करे । ऐसा धर्म बिकता नहीं जो धन देकर या दानसन्मान आदि से प्राप्त किया जाय । तथा किसी से दिया जाता नहीं जो किसी की उपासना से प्रसन्न करके ले सके; तथा मन्दिर, पर्वत, जल, अग्नि, देवमूर्ति, तीर्थादि में धर्म को रख दिया नहीं है कि वहां जाकर ले आवे, उपवास व्रत कायक्लेशादि तप में शरीरादि कृष करने से भी मिलता नही । ऐसा भी नहीं है, जो देवाधिदेव तीर्थकर के मन्दिरों से तथा उनमें उपकरण दान, मंडल विधान पूजा श्रादि से भी आत्मा का धर्म मिल सके। कारण कि धर्म तो श्रात्मा का स्वभाव है । अतः पर में आत्मबुद्धि को छोड़कर अपने ज्ञाता -- दृष्टा स्वभाव द्वारा ज्ञायक स्वभाव में ही प्रवर्तन रूप जो प्राचरण वह "धर्म" है । यदि श्रात्मा उत्तम क्षमादि वीतरागरुप- सम्यम्दर्शन रुप न हुआ तो कहीं भी किंचित् धर्म नहीं होता । (२) श्लोक ३३ में लिखा है कि जिसके ऐसा व्रत सम्यग्दष्टि मोक्षमार्गी है मिथ्यात्व है मुनि के व्रतधारी साधु होने कर भवनत्रिकादिक में उपजि संसार ही में परिभ्रमण करेगा | मिथ्यात्व नहीं और जिसके पर भी मर प्रश्न ( ८८ ) - मज्ञानी को विश्व में कितने द्रव्य दिखते हैं ?
SR No.010118
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages211
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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