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________________ (१९७) हुआ दूसरे का जाप करता है" प्रश्न (३६४)-विकारी पर्याय पराश्रित है इस विषय में श्री समय. सारजी में कहीं कुछ कहा है ? उत्तर-"इससे करो नहि राग वा, संसर्ग, उभय कुशील का । इस कुशील के संसर्ग से है, नाश तुझ स्वातंत्र का ॥१४॥ अर्थ- इसलिए इन दोनों कुशीलों के साथ रागमत करो, अथवा ससर्ग भी मत करो, क्योंकि कुशील के साथ संसर्ग और राग करने से स्वाधीनता का नाश होता है। प्रश्न (३६५)-क्या श्रद्धा करनी और क्या श्रद्धा छोड़नी चाहिए? उत्तर-(१) पर के आश्रय से स्वाधीनता नष्ट होती है। इसने अपना प्राश्रय छोड़ा है, तो पर के साथ सम्बंध जोड़ा है, यह कहने में आता है। वास्तव में ऐसा है नही, ऐसी श्रद्धा करनी । (२) पर के आश्रय से कुछ भी होता है ऐसी खोटी मान्यता छोडनी है क्योकि जिनेन्दभग वान इससे सहमत नहीं है प्रश्न (३९६ --जिनेन्द्र भगवान किससे सहमत नहीं है ? उत्तर-दो द्रव्य की क्रियायों को एक द्रव्य करता है, इससे सहमत नहीं है। प्रश्न (३६७)-जिससे सम्यग्दर्शन हो, फिर क्रम से मोक्ष हो । ऐसे आठ बोलों में से-छटा बोल क्या है ? उत्तर --"जब विकारी पर्याय स्वतंत्र है तो शास्त्रों में स्व-पर प्रत्ययों को क्यों कहा है" यह छटा नाम है। प्रश्न (३९८ :-विकारी पर्याय स्वतंत्र है तो स्व-पर प्रत्यय क्यों कहे गये हैं ? उत्तर-उपादान और निमित्त का ज्ञान कराने के लिए स्व-पर प्रत्यय कहे गये हैं। क्योंकि जहां उपादान होता है वहाँ निमित्त होता ही है, ऐसा वस्तु स्वभाव है।
SR No.010118
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages211
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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