SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 26
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( २० ) (५) शुभाशुभ विकारी भावो से पृथक होना (६) अपूर्ण पूर्ण शुद्ध पर्यायो के पक्ष से पृथक होना (७) भेदनय के पक्ष से पृथक होना (८) अभेदनय के पक्ष से पृथक होना ( ९ ) भेदाभेदनय के पक्ष से पृथक् होना । प्रश्न १४- प्रथम विभक्ति का अर्थ है " आत्मा मे विशेष प्रकार से लीनता" उसकी प्राप्ति कैसे हो ? उत्तर- नौ प्रकार के पक्षो से मेरी आत्मा का कोई सम्बन्ध नही है ऐसा जानकर अपनी आत्मा जो अनन्त गुणो का अभेद पिण्ड है उसकी ओर दृष्टि करे तो " आत्मा मे विशेष प्रकार से लीनता की प्राप्ति होवे" । प्रश्न १५ - अपने मे विशेष प्रकार से भक्ति करने से क्या क्या होता है ? उत्तर - अनादिकाल से नौ प्रकार के पक्षो मे जो कर्ता-कर्मादि की बुद्धि है उसका अभाव हो जाता है और अपने भगवान का पता चल जाता है । क्रम से वृद्धि करते-करते, पूर्ण परमात्मापना पर्याय मे प्रगट हो जाता है । प्रश्न १६ - छह कारको के ज्ञान से क्या होना ? उत्तर - अनादिकाल से यह जीव अपने को भूल कर पर मे, विकार मे या किसी पक्ष मे पडकर पागल हो रहा है । यदि यह छह कारको का ज्ञान करले, तो पागलपने का अभाब हो जावे । प्रश्न १७ - यह कारकों का ज्ञान करके हम ज्ञानी माने जावें और लोग हमारा आदर करें, हमें रुपयो-पैसो की प्राप्ति हो, ऐसा मानकर जो छह कारको का ज्ञान करे तो क्या होता है ? उत्तर - ऐसा जीव अनन्त ससार का पात्र होता है क्योकि छह कारको के ज्ञान से तो अनन्तकाल की पर मे कर्ता-भोक्ता की खोटी बुद्धि का अभाव होता है, उसके बदले उसने सासारिक प्रयोजन साधे जो परम्परा से निगोद का कारण है । , C
SR No.010117
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy