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________________ ( १४२ ) उत्तर-(१) जब निश्चय कारण उपादान के कार्य रूप परिणमित होने का काल होता है तव निमित्त की उपस्थिति स्वयमेव होती है ऐसा वस्तु का स्वभाव है (२) जो जीव निमित्त मिलाने के प्रयत्न मे लगे रहते हैं उन्हे धर्म की प्राप्ति नही होगी, क्योकि निमित्त मिलाना पडता नही है, परन्तु होता है। (३) निमित्त मिलाने की बात निगोद से आई है, क्योकि प्रत्येक कार्य एक समय जितना होने से उसका (कार्य का) निमित्त के साथ एक समय का सम्बन्ध है। कार्य होने से पहले निमित्त किसे कहना और मिलाना कैसे ? प्रश्न ५०-उपादान और निमित्त को जानने से क्या फल आना चाहिये ? उत्तर-(१) व्यवहार से मोह छोडना। (२) व्यवहारनय मे अविरोध रूप से मध्यस्थ रहना । (३) त्रिकाली उपादान के द्वारा मोह का अभाव करना । (४) मैं पर का नही हूँ, पर मेरे नहीं है ऐसा स्वपर का परस्पर स्व-स्वामी सम्वन्ध को त्याग देना। (५) मैं एक आत्मा ही हूँ अनात्मा नही हूँ। (६) अपने मे अपने को एकाग्र करना । (७) ध्रौव्य के लिए शुद्ध आत्मा ही उपलब्ध करने योग्य है। (८) अध्रुव शरीरादि उपलब्ध करने योग्य नहीं है। [श्री प्रवचनसार गा० १६० से १६३ तक के शब्दो मे] प्रश्न ५१-कौनसा उपादानकारण हो, तब कार्य की उत्पत्ति नियम से होती है ? उत्तर-उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादानकारण हो, तब नियम से कार्य की उत्पत्ति होती ही है। प्रश्न ५२~-पहले कारण या कार्य ? उत्तर- वास्तव मे सच्चे कारण-कार्य का एक ही समय होता है। फिर पहले कारण और फिर कार्य-ऐसा प्रश्न ही नही है। प्रश्न ५३-उपादान के कार्य के लिए और निमित्त के कार्य के लिए आचार्यों ने क्या शब्द बताया है ?
SR No.010117
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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