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________________ ( १७३ । भगवान को पूजा, यात्रा, शास्त्र पढ़ता हुमा भी, इस जोव ने अनादि से एक समय भी प्रमेयत्व गुण को नहीं माना । यदि मान लेता तो आज इसका मोक्ष हो गया होता । हे प्रात्मा तू जायक, तमाम संसार ज्ञ य, इतना हो संबंध है। मन्दिर शास्त्र देव गरू यही बतलाते हैं। यह अज्ञानी निको हाथ जोड़ता है परन्तु उनकी प्राज्ञा नहीं मानता । मन्दिर को प्रतिमा यह बताती है कि मैंने तमाम संसार के पदों को होय माना तो मुझे इस पद की प्राप्ति हुई है, और तैने नही माना इमलिये तू दुःखी हो रहा है अब तू संसार के पदार्थों का ज्ञाता-दृष्टा बन जा, तब तो इसने भगवान के दर्शन किये तभी ज्ञ य-ज्ञायक संबंध को माना प्र० १७. 'मैं मनुप्य है इसमें अस्तित्व, वस्तुत्व, व्यत्व गगा को लगायो। उ० (१) मैं अात्मा अनंन गुणों का पिण्ड अनादिअनंत कायम रहता हुमा प्रयोजनभूत कार्य को करता हुग्रा. निरन्तर बदलता हूं। (२) द्रव्य कर्म, तं जम गरीर, प्रीरिक शरीर में अनंत गुद्गल परमारण हैं । वह हमेशा कायम रहते हए अपना अपना प्रयोजन भूत कर्स करते हुये निरन्तर बदल रहे हैं, ऐभा वस्तु स्वभाव है। प्र. १८. प्रात्मा और परमागग मब कायम रहते हुये, अपना योजनभूत कार्य करते हुये, निरन्तर क्यों बदल रहे हैं ? उ० अस्तित्व, वस्तृत्व, द्रव्यत्व गुगा के कारण ऐसा हो रहा है ऐसा वस्तु स्वभाव है यह पारमेश्वरी व्यवस्था है, इसको बदलने को देव इन्द्र जिनेन्द्र भी समर्थ नहीं हैं। ऐसा होने पर भी अज्ञानी 'मैं मनुष्य ' ऐसा मानता है. इस
SR No.010116
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages219
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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