SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 180
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( १७२ ) जय-ज्ञायक संवन्ध न मानने से क्या इसने प्रमेयत्व गुण को नहीं माना? उ0 प्रात्मा, शरीरादि का ज्ञ य-ज्ञायक संबंध न मानने से और कर्ता कर्म भोक्ता-भोग्य संबंध मानने से यह जीव निगोद का पात्र होता है अनन्त जन्म मरण करता हुआ दुःखो रहता है। प्र. १४. अात्मा शरीर का ज्ञ य-ज्ञायक संबध न मानने मे यह दु:खो हो रहा है और प्रमेयत्व गुण का निरादर कर रहा है ऐसी अवस्था में प्रमेयत्व गुण को कैसे माने ताकि दुःख का प्रभाव हो ? उ० मैं आत्मा ज्ञायक हूँ. शरीरादि ज्ञान का ज्ञय है इनमें मेरा कर्ताकर्म, भोक्ता-भोग्य का संबंध नहीं है ऐसा जानकर अपनी ओर दृष्टि करे तो प्रमेयत्व गुण को माना। प्र० १५. 'मैं मनुष्य । इसमें प्रमेयत्व गुण मानने से क्या लान रहा ? उ. मैं प्रात्मा जायक हूँ, शरीरादि ज्ञ य हैं, तब शरीर में कुछ होजैसे सुकुमाल को स्यालनी खा रही थी, मजसुकुमार के सिर पर अंगीठी रक्खी थी उन्होंने उन सबको ज्ञेय जाना तो उनको धर्म की प्ति हुईयह प्रमेयत्व गुण को जानने का लाभ है। सकल ज्ञेय ज्ञायक तदपि, निजानन्द रसलीन । सो जिनेन्द्र जयवंत नित, अरि रज रहस विहीन ।। अतः प्रमेयत्व गुण को मानने से परहंत सिद्ध पद की प्राप्ति होती है । प्र० १६. तो क्या इस नीव ने प्रमेयत्व गुण को अनादि से नहीं माना ? उ. अहो,अहो,प्राश्चर्य है,वर्तमान में दिगम्बर धर्म धारण करने पर
SR No.010116
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages219
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy