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________________ वन्दना भी जैन भक्ति का मुख्य अंग है । 'वन्दनक सूत्र' पर लिखी गई 'भद्रबाहुनियुक्ति' में, उत्तराध्ययन सूत्र और प्रावश्यक सूत्रों में, हरिभद्रसूरि के 'वन्दनापंचाशक' में तथा वट्टकेरकृत 'मूलाचार' में वन्दना का सैद्धान्तिक निरूपरण किया गया है । श्ररहन्तवन्दन और चैत्यवन्दन पर अनेक स्तुतिस्तोत्र उपलब्ध हैं। श्री जिनदत्तसूरि के चैत्यवन्दनकुलक में २८ गाथाएँ हैं । जिनप्रभसूरि के 'वन्दन स्थान विवरण' में १५० प्राकृत की गाथाएँ हैं । प्राचार्य समन्तभद्र ने देवाधिदेव जिनेन्द्र के चरणों की परिचर्या अर्थात् सेवा करने को ही पूजा कहा है । भ्रष्टद्रव्यरूप पूजा का उल्लेख सर्व प्रथम, प्राचार्य यतिवृषभ की 'तिलोयपण्पत्ति' में उपलब्ध होता है । इसके उपरान्त पंचपरमेष्ठी, विविधतीर्थक्षेत्र, नन्दीश्वर द्वीप, कृत्रिम और प्रकृत्रिम चैत्यालयों की भक्ति forfan पूजा का निर्माण हुआ। ये पूजायें बहुत कुछ संस्कृत और हिन्दी में ही रची गई । इनके अंत में लिखित जयमालाएँ भक्ति-साहित्य का मूल्यवान प्रश है । इन पूजानों के अनेक संकलन प्रकाशित हो चुके हैं जिनमें भारतीय ज्ञानपीठ - पूजांजलि महत्वपूर्ण है । हिन्दी में द्यानतराय की पूजाएँ, संगीत, लय, भाव और भाषा सभी दृष्टियों से उत्तम हैं । जैन श्रौर जैन पूजा साहित्य के तुलनात्मक विवेचन से अनेक नई बातें ज्ञात हो सकती हैं। हिन्दी का जन भक्ति-कव्य हिन्दी का भक्ति काव्य अपनी ही उपर्युक्त पूर्व परम्परा से अनुप्राणित है । उसका विभाजन - निष्कल भक्तिधारा और सकल भक्तिधारा के रूप में किया जा सकता है । निष्कल ब्रह्म 'सिद्ध' को कहते हैं । सिद्ध अदृश्य हैं और स्थूल आकार से रहित हैं । वे मोक्ष में विराजमान हैं। उनमें सम्यक्त्व, दर्शन, ज्ञान, वीर्य, सूक्ष्मता, अवगाहन, अगुरुलघु और श्रव्याबाध नाम के प्राठ गुण होते हैं । श्राचार्य योगीन्दु ने 'सिद्ध' और 'शुद्ध आत्मा' का एक ही रूप माना है । प्राचार्य पूज्यपाद का कथन है कि श्राठ कर्मों के नाश से शुद्ध आत्मा की प्राप्ति होती है, उसे ही सिद्धि कहते है और ऐसी सिद्धि करने वाला ही सिद्ध कहलाता है । पं० श्राशावर ने 'सिद्ध' की व्युत्पत्ति करते हुए लिखा है "सिद्धिः स्वात्मोपलब्धिः संजाता यस्य इति सिद्धि: । श्रात्मा भी निराकार है अदृश्य है । हिन्दी के जैन कवियों ने अपने मुक्तक पदों में सिद्ध और श्रात्मा दोनों ही को सम्बोधन करके अपना भाव प्रकट किया है । सकल ब्रह्म अरहन्त को कहते हैं । चार घातिया कर्मों का क्षय करने से अर्हत्पद मिलता है । अर्हन्त को चार अघातिया कर्मों के नाश होने तक संसार में 56666655555555556G
SR No.010115
Book TitleJain Shodh aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain
PublisherDigambar Jain Atishay Kshetra Mandir
Publication Year1970
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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