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________________ समाधिमरण और उसके भेद समाधिमरण दो शब्दों - समाधि और मरण से मिलकर बना है । इसका अर्थ है - समाधिपूर्वक मरना । शुद्ध आत्मस्वरूप पर मन को केन्द्रित करते हुए प्रारणों का विसर्जन समाधिमरण कहलाता है । सभी धर्मों के प्राचार्यों ने जीव अन्त काल को अत्यधिक महत्त्व दिया है । जैन आचार्यों ने तो यहाँ तक लिखा है कि जीवन भर की तपस्या व्यर्थ हो जाती है, यदि अन्त समय में राग-द्वेष को छोड़कर समाधि धारण न की । श्राचार्य समन्तभद्र का कथन है- अन्तक्रियाधिकरणं तपः फलं सकलदर्शिनः स्तुवते । तस्माद्यावद्विभवं समाधिमरणे प्रयतित व्यम् । अर्थात् तप का फल अन्तक्रिया के आधार पर अवलम्बित है, ऐसा सर्वदर्शी सर्वज्ञ देव ने कहा है । इसलिए यथासामर्थ्य समाधिमरण में प्रयत्नशील होना चाहिए । श्री शिवार्यकोटि ने 'भगवती - श्राराधना' में लिखा है- सुचिरा विरिणरदिवारं विहरित्ता गाग दंसण चरिते । मरणे विराधयित्ता अनंतसंसारिनो दिट्ठो । अर्थात् दर्शन, ज्ञान श्रौर चरित्र - रूप धर्म में चिरकाल तक निरतिचार प्रवृत्ति करने वाला मनुष्य भी यदि मरण के समय उस धर्म की विराधना कर बैठता है, तो वह संसार में अनन्त काल तक घूम सकता है । समाधिमरण का विधान सभी के लिये है । समाधिमरण के पाँच भेद हैं- पण्डितपण्डित, पण्डित, बालपण्डित, बाल और बाल-बाल । इनमें से प्रथम तीन अच्छे और अवशिष्ट दो बुरे हैं । बाल-बाल मरण मिथ्यादृष्टि जीवों के, बाल-मरण अवरित सम्यग्दृष्टियों के, बाल-पण्डित मरण देशव्रतियों (श्रावकों) के, पण्डित-मरण सकल संयमी साधुनों के श्रौर पण्डित पण्डित - मरण क्षीरणकषाय केवलियों के होता है । पण्डितमरण के भी तीन भेद है - पहला 'भक्त- प्रत्याख्यान' कहलाता है । भक्त नाम भोजन का है, उसे शनैः-शनैः छोड़ कर जो शरीर का त्याग किया जाता है, उसे भक्त - प्रत्याख्यानं मरण कहते है । भक्त-प्रत्याख्यान करने वाला साधु अपने शरीर की सेवा-टहल या वैयावृत्य स्वयं अपने हाथ से भी करता है, और यदि दूसरा करे, तो उसे भी स्वीकार कर लेता है। दूसरा 'इंगिनी मरण' है; जिसमें और तो सब 'भक्तप्रत्याख्यान' के समान ही होता है, किन्तु दूसरे के द्वारा वैय्यावृत्य स्वीकार नहीं ६. प्राचार्य समन्तभद्र, समीचीनधर्मशास्त्र, ६।१२, पृ० १६३, वीर सेवा मन्दिर, दिल्ली शिवार्यकोटि, भगवती - श्राराधना, गाथा १५, मुनि अनन्तकीर्ति दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला, हीराबाग, बम्बई. फफफफफफफ २४ 5554
SR No.010115
Book TitleJain Shodh aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain
PublisherDigambar Jain Atishay Kshetra Mandir
Publication Year1970
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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