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________________ 1000 जायेगा | योगसूत्र में अम्बर का अर्थ प्रकाश लिया गया है, तब जनों ने भात्मस्वरूप को अम्बर, अर्थात् शून्य कहा है । " जैसे प्रकाश द्रव्य सब द्रव्यों से भरा हुआ है, परन्तु सबसे शून्य अपने स्वरूप में है, उसी प्रकार चिद्रूप श्रात्मा रागादि सब उपाधियों से रहित है, शून्य रूप है, इसलिए प्राकाश शब्द का अर्थ शुद्ध श्रात्म-स्वरूप लेना चाहिए ।"१ समाधि और भक्ति or योगसूत्र में ईश्वरप्रणिधान को ही समाधि का कारण माना है ।" ईश्वर है 'पुरुष - विशेष', जो पूर्वजों का भी गुरु है और जिसमें निरतिशय सर्वज्ञ के बीज सदैव प्रस्तुत रहते हैं । प्रणिधान का अर्थ है - भक्ति । ईश्वर की भक्ति से समाधि के मार्ग में आने वाली सभी बाधाएँ शान्त हो जाती हैं । प्ररणव का जाप, मन्त्रोच्चारण और अर्थ भावन इसी ईश्वर भक्ति के द्योतक है । 3 गीता में भी भक्ति को योग की प्रेरणा शक्ति के रूप में स्वीकार किया गया है। गीता की व्याख्या करते हुए श्री अरविन्द ने लिखा है, यह योग उस सत्य की साधना है, जिसका ज्ञान दर्शन कराता है और इस साधना की प्रेरक शक्ति है- एक प्रकाशमान शक्ति, एक शान्त या उग्र आत्मसमर्पण का भाव उस परमात्मा के प्रति, जिन्हें ज्ञान पुरुषोत्तम के रूप में देखता है ।" ४ जैन शास्त्रों में धर्म्य ध्यान के चार भेद किये गए हैं, जिनमें सबसे पहला है 'आज्ञा-विचय' ।' 'विवेक' श्रीर 'विचाररणा' विचय के पर्यायवाची नाम हैं । श्राज्ञा-विचय का अर्थ है- भगवान जिन की आज्ञा में अटूट श्रद्धा करना । श्राज्ञा सर्वज्ञ-प्रणीत श्रागम को कहते हैं । श्राचार्य पूज्यपाद ने कहा है, "तान्यथावादिनो जिना: इति गहनपदार्थश्रद्धानाद वधारणमाज्ञाविचयः” । श्रर्थात् भगवान् जिन अन्यथावादी नहीं होते; इस प्रकार गहन पदार्थ के श्रद्धान द्वारा अर्थ का अवधारण करना श्राज्ञा-विचय धर्म्य १. प्राचार्य योगीन्दु, परमात्मप्रकाश, डा० ए० एन० उपाध्ये - सम्पादित, १६४वें दोहे का हिन्दी - भावार्थ, पृ० ३०८, बम्बई २. पातञ्जल गोगदर्शन, १।२३, पृ० ४६ ३. पातञ्जल योगदर्शन, १।२४- २८, पृ० ५०-६० ४. अरविन्द, गीता-प्रबन्ध, भाग १, पृ० १३४ ५. प्राज्ञापाय-विपाक संस्थानविचयाय धर्म्यम् । - तत्त्वार्थसूत्र 81३६ ६. प्राचार्य पूज्यपाद, सर्वार्थसिद्धि, पं० फूलचन्द शास्त्रि सम्पादित, पृ० ४४६, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी 555555 २१ फ 9999€
SR No.010115
Book TitleJain Shodh aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain
PublisherDigambar Jain Atishay Kshetra Mandir
Publication Year1970
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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