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________________ . आधार पर कहा जा सकता है। प्राचार्य बोधिधर्म ने चीन में बताया कि ध्यान के गूढ़ रहस्यों का उपदेश भगवान बुद्ध ने अपने शिष्य महाकाश्यप को दिया था, जिन्होंने उसे प्रानन्द को बताया। ' उपनिषदों में भी 'उत्कृष्ट ध्यान' को समाधि कहा है । साधारण ध्यान में ध्याता, ध्येय और ध्यान तीनों का पृथकपृथक् प्रतिभास होता रहता है, किन्तु उत्कृष्ट ध्यान में ध्येय-मात्र ही अवभासित होता है और उसे ही समाधि कहते हैं। ध्यान और मन को एकाग्रता ध्यान में मन की एकाग्रता का प्रमुख स्थान है । मन के एकाग्र हुए बिना ध्यान हो ही नहीं सकता । जैनाचार्यों ने 'एकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानम् २' के द्वारा एकाग्र में चिन्ता निरोध को ध्यान कहा है । "अग्र पद का अर्थ है 'मुख' अर्थात् आलम्बन-भूत द्रव्य या पर्याय । जिसके एक अग्र होता है. उसे एकाग्र-प्रधान वस्तु या ध्येय कहते हैं । 'चिन्तनिरोध' का अर्थ है-अन्य अर्थों की चिन्ता छोड़कर एक ही वस्तु में मन को केन्द्रित करना । ध्यान का विषय एक ही अर्थ होता है। जब तक चित्त में नाना प्रकार के पदार्थों के विचार आते रहेंगे, तब तक वह ध्यान नहीं कहला सकता।"3 अतः चित्त का एकाग्र होना ही ध्यान है। योगसूत्र में भी तस्मिन्देशे ध्येयालम्बनस्य प्रत्ययस्यकतानतासदश: प्रवाहःप्रत्यांतरेणापरामृष्टो ध्यानम् कहकर ध्येय विषयक प्रत्यय की एकतानता को ध्यान माना है। एक तानता' एकाग्रता ही है । बौद्धों के 'मझिमनिकाय' में चार ध्यानों का निरूपण हुआ है और उनमें एकाग्रता को ही प्रमुख स्थान है । गीता के ध्यानयोग में आत्म-शुद्धि के लिए मन की एकाग्रता को अनिवार्य स्वीकार किया गया है । चंचल मन को एकाग्र किये बिना मनुष्य योगी नही कहला सकता । स्थिरचित्त योगी ही प्रात्मा को परमात्मा के साथ जोड़ सकता है, अन्य नहीं । श्री १ हिन्दी साहित्य सम्मेलन पत्रिका, भाग ४१, सख्या ३, पृ० ३२ २. उमास्वाति, तत्वार्थसूत्र, ६/२७ ३. अग्र मुखम् । एकमग्रमस्येत्येकानः । नानार्थवलम्बनेन चिन्ता परिस्पन्दवर्ता, तस्या प्रन्याशेषमुखेम्यो व्यावर्च्य एकस्मिन्नन नियम एकग्रचिन्तानिरोध इत्युच्यते । अनेन ध्यानं स्वरूपमुक्तं भवति । -पूज्यपाद, सर्वार्थसिद्धि, ६/२७ पृ० ४४४ भारतीय ज्ञानपीठ, काशी वि० स० २०१२ ४. पातञ्जल योगसूत्र, बी. डी. वसु-सम्पादित, ३/२ का व्यासमाष्य, पृ० १८० ५. महात्मा गांधी, अनासक्तियोग श्रीमद्भगवद्गीता भाषा-टीका, ६/१८, पृ० ८७ ६. देखिये वही, ६/१६, पृ०६८ भज फक१४ 559SS
SR No.010115
Book TitleJain Shodh aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain
PublisherDigambar Jain Atishay Kshetra Mandir
Publication Year1970
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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