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________________ f और शाक्त साधना के पंचमकार का रूप पल्लवित करने में समर्थ हुई। ईसा की सातवीं और आठवीं शती में बिहार-बंगाल बौद्ध तांत्रिकों के केन्द्र थे । एक और इस तांत्रिक साधना का प्रभाव बौद्ध सतों की रचनाओं में पाया जाता है, जहाँ उन्होंने अपनी रहस्यात्मक मान्यताओं को स्त्री-सग सम्बन्धी प्रतीकों से व्यक्त किया है, दूसरी ओर विद्वानों ने इस तरह की प्रतीक रचना में यह भी कारण afra ब्राह्मण धर्मानुयायी पण्डितों को चिढ़ाने के लिए ऐसी वस्तुनों को विहित घोषित करते हैं, जिन्हें ब्राह्मण धर्म निषिद्ध मानता था ।"" कबीर के प्रतीकों में यह अश्लीलता नाम मात्र को भी नहीं है । उनका मुख्य स्वर बाह्याडम्बरों के विरोध, जाति-पांति की निन्दा, सहज साधना और दिल में बसे ब्रह्म से प्रेम में रम गया था । यह बात जैन धर्म के मूल में ही पाई जाती है - सिद्धान्त रूप से । सिद्ध संतों में भी कर्माडम्बरों का विरोध है, ग्रन्थगत ज्ञान का उपहास है, किन्तु उनका स्वर ब्राह्मण - प्रतिक्रिया का परिणाम था, उनके मूल में ऐसा न था । जैनों मन्त्र तन्त्र के सम्प्रदाय, जो भगवान पार्श्वनाथ को आधार बना कर पनप उठे थे, कितने ही विकृत हुये हों, किन्तु उनमें बौद्ध तांत्रिकों - जैसी श्लीलता कभी नहीं आई। प्राचार्य सुकुमारसेन के 'विद्यानुशासन' और मल्लि के 'भैरवपद्मावती कल्प' तथा 'ज्वालामालिनीकल्प' - जैसे ग्रन्थों में भी यह बात नहीं है । इसके साथ ही, इन सम्प्रदायों में जैन तत्व किसी-न-किसी रूप में बना रहा । उन्होंने कर्मकाण्ड का खुला विरोध किया, प्रदृष्ट, अमूर्तिक, निरजन, आत्मब्रह्म को ही मुख्य माना और शरीर के सम्बन्ध में उठी समूची मान्यतात्रों को धार्मिक मानने से इन्कार कर दिया । आगे चलकर 'नाथ सम्प्रदाय' के इसी तत्व ने हिन्दी के 'निर्गुनिए सन्तों' को प्रभावित किया । जैन संत योगीन्दु, रामसिंह, देवसेन, लक्ष्मीचन्द, श्रानन्दतिलक आदि में भी यही तत्व प्रबल था । डॉ० भोलाशंकर व्यास ने एक स्थान पर लिखा है, "इन दोनों (योगीन्दु और रामसिह ) पर बौद्ध तांत्रिकों तथा शाक्त योगियों का स्पष्ट प्रभाव है । इसी सन्दर्भ में उन्होंने एक दूसरे स्थान पर लिखा, "यह दूसरी बात है कि जैन कवियों के इन दोहों में बौद्धों या नाथ सिद्धों जैसा विध्वंसात्मक १. हिन्दी साहित्य का बृहत् इतिहास, प्र० मा०, काशी, पृ० ३४६-५० २. देखिए वही, पृ० ३४८ | 7555555 999999
SR No.010115
Book TitleJain Shodh aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain
PublisherDigambar Jain Atishay Kshetra Mandir
Publication Year1970
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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