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________________ KOSs ANANDS का HERI से टकरा कर बहती है। प्रागे चल कर काव्यशास्त्र के प्राचार्यो-रुद्रट, राजशेखर, पुरुषोत्तम, नमि साधु, हेमचन्द्र प्रादि ने भी अपभ्रंश को मान्यता दी। अपभ्रश की परम्परा हिन्दी को मिली। केवल छन्द और अभिव्यञ्जना के रूप में ही नहीं, अपितु विषय-गत प्रवृत्तियों के रूप में भी। इस ग्रन्थ में निबद्ध मेरा निबन्ध 'जन अपम्रश का हिन्दी के निर्गुण भक्ति काव्य पर प्रभाव' है। इसमें मैंने लिखा है कि कबीर प्रादि निगुनिए सन्तों ने जो कुछ कहा, ठीक वैसा ही, कहीं-कहीं हू-बहू जोइंदु के परमात्मप्रकाश-योगसार, देवसेन के साधयधम्मदोहा, मुनि रामसिह के पाहुड़दोहा, मुनि महचन्द के दोहापाहुड़ और प्रानन्दतिलक के 'पाणंदा' प्रादि दूहा साहित्य में बहुत पहले ही लिखा जा चुका था। यह साहित्य स्पष्ट रूप से दो भागों में बांटा जा सकता है- एक तो वह, जिसमें वीर-शृगार प्रमुख था और एक वह, जो अध्यात्म-प्रधान था। मैंने दूसरे को लिया है। डॉ० हीरालाल जैन और डॉ० ए० एन० उपाध्ये ने इसको रहस्यवादी भी कहा है। डॉ० भोलाशंकर व्यास का अभिमत है, "योगीन्द्र तथा रामसिंह को रचनाओं को रहस्यवाद कहने के पहले हमें रहस्यवाद के अर्थ को परिवर्तित करना होगा। अच्छा हो हम उन्हें प्रध्यात्मवादी या अध्यात्म-परक काव्य ही कहें।" मैं नहीं जानता कि डॉ० व्यास की रहस्यवाद की परिभाषा क्या है ? वह उन्होंने दी नहीं। कबीर के रहस्यवाद को विशेषता थी-समरसीभाव । प्रात्मा और परमात्मा के तादात्म्य को समरस कहते हैं। यह बात अपभ्रंश के दूहाकाव्य में पहले से है। यदि ब्रह्म की भावात्मक अभिव्यक्ति रहस्यवाद है तो वह जैन काव्यों में अवश्य ही उपलब्ध होती है। उसे यदि कोई केवल प्रध्यात्मवाद कहे, तो भी मुझे आपत्ति नहीं है । इस निबन्ध से मेरा तात्पर्य इतना ही है कि निर्गुणकाव्यधारा के कबीर आदि सन्त कवियों में जो प्रवृत्तियाँ थीं, वे जैन पपभ्रंश काव्य में पहले से ही प्राप्त होती हैं । कबीर को नाथ सम्प्रदाय की जो सीधी परम्परा मिली थी, उसमें जैनों के दो प्राचीन सम्प्रदाय-पारस' और 'नेमि' अन्तर्भूत हुए थे, ऐसा डॉ० हजारी प्रसाद द्विवेदी ने 'नाथ सम्प्रदाय' नाम के ग्रन्थ में लिखा है। किसी समय नेमि सम्प्रदाय सौराष्ट्र-गिरिनार की तरफ फैला हुआ था। उस पर एक अनुसन्धि त्सु काम कर रहा है। जहाँ तक 'पारस' सम्प्रदाय का सम्बन्ध है मैं कतिपय प्राचीन ग्रन्थों के प्राधार पर इतना कह सकता है कि कुछ पापित्यीय साधु १. हिन्दी साहित्य का बृहत् इतिहास, प्र० मा०, काशी, पृ० ३४७ । ID rammamewpaye AN कककककककK यत्रक) 15the
SR No.010115
Book TitleJain Shodh aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain
PublisherDigambar Jain Atishay Kshetra Mandir
Publication Year1970
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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