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________________ TREAMIREONUMERE KE S amutthamPANESEATRA % EO कथा भी होती है। दोनों में कोई विरोध नहीं होता, दोनों दूध-पानी की भाँति मिले रहते हैं । अत: जैन काव्यों के विषय में डा० शिवप्रसावसिंह का यह कथन "जैन काव्यों में शांति या शम की प्रधानता है अवश्य किन्तु यह प्रारम्भ नहीं परिणति है.। सम्भवतः पूरे जीवन को शम या विरक्ति का क्षेत्र बना देना प्रकृति का विरोध है ।" उपयुक्त प्रतीत नहीं होता । अन्य काव्यों की भांति ही जैन काव्य हैं । इनमें भी एक मुख्य रस और अन्य रस रहते हैं। केवल शम को मुख्य रस मान लेने से प्रकृति का विरोध है, शृगार या वीर को मानने से नहीं, यह एक विचित्र तर्क है, जिसका समाधान कठिन है । जैन महाकाव्य शांति के प्रतीक है। किन्तु इसका यह तात्पर्य नहीं है कि मानव जीवन के अन्य पहलुग्नों को दबा दिया गया है या छोड़ दिया है और इस प्रकार वहाँ अस्वाभाविकता पनप उठी है। जहाँ तक जैन अपभ्रंश के प्रबन्धकाव्यों का सम्बन्ध है, उन्हें दो भागों में बाँटा जा सकता है-स्वयभू का 'पउमचरिउ', पुष्पदन्त का 'महापुराण', वीर कवि का 'जम्बूस्वामी चरिउ' और हरिभद्र का 'रणेमिणाहचरिउ' पौराणिक शैली में तथा धनपाल धक्कड़ को 'भविसयत्तकहा', पुष्पदन्त का 'गायकुमारचरिउ' और नयनंदि का 'सुदंसरणचरिउ' रोमांचक शैली में लिखे गये हैं। हिन्दी के जैन प्रबन्ध काव्यों में पौराणिक और रोमांचिक शैली का समन्वय हुअा है । सधारु का 'प्रद्युम्नचरित्र', ईश्वर सूरि का 'ललितांग चरित्र', ब्रह्मरायमल्ल का 'सुदर्शनरास', कवि परिमल्ल का 'श्री पालचरित्र' मालकवि का 'भोजप्रबन्ध', लालचन्द लब्धोदय का 'पद्मिनीचरित्र', रामचन्द्र का 'सीताचरित्र' और भूधरदास का 'पार्श्वपुराण' ऐसे ही प्रबन्ध काव्य हैं। इनमें 'पद्मिनीचरित्र' की जायसी के 'पद्मावत' से और 'सीताचरित्र' की तुलसीदास के 'रामचरितमानस' से तुलना की जा सकती है । स्वयम्भू के 'पउमचरिउ' की महापण्डित राहुल सांकृत्यायन ने भूरि-भूरि प्रशंसा की थी। उनका पूरा विश्वास है कि तुलसी बाबा का रामचरित मानस, 'पउमचरिउ' से १ विद्यापनि, डॉ. विश्वप्रसार्दासह, हिन्दी प्रचारक पुस्तालय, वाराणसी, द्वितीयसंस्करण, सन् १६६१, पृ० ११० । २. इनका परिचय मेरे ग्रन्थ 'हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि', अध्याय २ में देखिए । ३. पधि चरित्र और सीताचरित्र की हस्तलिखित प्रतियों का परिचय, मेरे उपयुक्त ग्रन्थ में क्रमशः पृ० २२५ व २३१ पर दिया हुआ है। E NA 57.556 56 95 5.4 5** 55555
SR No.010115
Book TitleJain Shodh aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain
PublisherDigambar Jain Atishay Kshetra Mandir
Publication Year1970
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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