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________________ A एम भरतहि रहकर, गाय मह नाहसि। कवा एक वर बोरकर, निवडा पहिरवासि ॥२२॥ अर्थ-तब सुन्दरी (राजकुमारी) कहने लगी-ए परदेशी पाइने ! तुम यहाँ से जामो-जाप्रो। मैं तुम्हें मना करती है। तुम्हें देख कर मेरे पिता मोहित हो गये हैं और एक मैं हूँ जो तुम्हें मारने जा रही हूँ । रल्ह कवि कहता है-इस प्रकार कहते-कहते पर्याप्त रात्रि बीत गई और फिर उसने कहा, 'हे श्रेष्ठ वीर एक कथा कहो जिससे पहरा बैठे-बैठे (जागते) रात्रि का शेष प्रहर निकल जावे।' यह काब्य जिणदत्त की वीरता और प्रतिभा से अधिक सम्बन्धित है। इसमें वीर रस का अच्छा परिपाक हुमा है । शालिभद्रसूरि के भरतेश्वर-बाहुबलि रास में भी दो भाइयों के युद्ध का वर्णन है । इसमें प्रयुक्त शब्द भी युद्धोपयुक्त हैं। किन्तु उसका पर्यवसान स्वाभाविक ढंग से ही शान्तरस में हो गया है। इसकी रचना वि० सं० १२४१ में हुई थी। आदिकालीन हिन्दी का उत्तम निदर्शन है। 'सप्तक्षेत्रि रास' (वि०सं० १३२७) और 'संघपतिसमरा रास' (वि०सं० १३७१) भक्ति से सम्बन्धित हैं। इनमें भक्ति रस की प्रमुखता है। मेरुतुग-कृत 'प्रबन्ध चिंतामरिण' एक ऐतिहासिक ग्रन्थ माना जाता है। अब इसका प्रकाशन मुनि जिनविजय जी के सम्पादन में, 'सिंघी जैन ग्रन्थमाला' से हो चुका है। इसके कई प्रबन्धों में यत्र-तत्र ऐसे दोहे बिखरे हुए हैं, जिन्हें हम 'प्राचीन हिन्दी' सहज ही कह सकते हैं । कतिपय दोहे हैं जा मति पाछइ संपजइ, सा मति पहिली होइ । मंजु भणइ मुणालवइ, विधन न बेद कोइ॥ जह यह रावणु जाइयो, वह मुह इक्कु सरीरु। जननि वियंमी चिन्तवइ, कबनु पियाइए खीर ॥ मंजु भरणइ मुगालवइ, जुम्बण्णु गयउ न भूरि । जइ सक्कर सयरवंड थिय, तोइ स मोठी धूरि॥ विनयचन्द्र सूरि की 'नेमिनाथ चउपई' नेमि-राजुल परक एक प्रसिद्ध रचना है । इसे यदि बारहमासा काव्य कहें तो अनुपयुक्त न होगा। इसमें राजुल और सखी के बीच उत्तर प्रौर प्रत्युत्तर के रूप में यह पूर्ण हुई है । इसमें ४० पद्य BER ESHSHEREE Mastana e atestra 1555555SKC95555555
SR No.010115
Book TitleJain Shodh aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain
PublisherDigambar Jain Atishay Kshetra Mandir
Publication Year1970
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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