SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 238
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ SHAMA R हटता जाता है। जैन आचार्यों ने माठ कर्मों में मोहनीय को प्रबलतम माना है। 'स्व' को सही रूप में पहचानने में वह ही सबसे बड़ा बाधक है।' उसकी जड़ को निर्मूल करने में ज्ञानी प्रात्मा ही समर्थ है । बनारसीदास का कथन है, "माया बेली जेती तेती रेते में धारेती सेती, फंदा ही को कंदा खोदे खेती को सो जोधा है।' सांख्य-की-सी बात भय्या भगवतीदास ने 'ब्रह्म विलास' में कही है। उन्होंने लिखा कि काया रूपी नगरी में चिदानन्द रूपी राजा राज्य करता है । वह माया रूपी रानी में मग्न रहता है । जब उसका सत्यार्थ की ओर ध्यान गया, तो ज्ञान उपलब्ध हो गया और माया की विभोरता दूर हो गई, "काया-सी जू नगरी में चिदानन्द राज करै, माया-सी जू रानी पै मगन बह भयौ है।"२ कबीरदास ने भी जब उसका भेद पा लिया तो वह बाहर जा पड़ी। उसका भेद पाना, ज्ञान प्राप्त करना ही है । शान के बिना माया मजबूत चिपकन के साथ संसारी जीव को पकड़े रहती है । तुलसीदास ने भक्ति के बिना माया का दूर होना असम्भव माना है। इस सम्बन्ध में रघुपति की दया ही मुख्य है । वह भक्ति से प्राप्त होती है । तुलसी ने विनय पत्रिका में लिखा है, 'माधव अस तुम्हारि यह माया, करि उपाय पचि मरिय तरिय नहिं, जब लगि करहु न दाया। जैन कवि भूधरदास ने मोहपिशाच को नष्ट करने के लिए भगवन्त भजन' पर बल दिया। उसको भूलने पर तो मोह से कोई छुटकारा नहीं पा सकता। उन्होंने लिखा है, "मोह पिशाच छल्यो मति मारै, निजकर कंध वसूला रे । भज श्री राजमतीवर भूधर दो दुग्मति सिर धूला रे । भगवंत भजन क्यों भूला रे ।४" कबीर की दृष्टि में माया मे छुटकारा प्राप्त करने के लिए सतगुरु की कृपा आवश्यक है । कबीर ने सत्गुरु को गोविन्द से बड़ा माना है। उनका कथन है कि यदि गुरु की कृपा न होती तो वह इस जीव को नष्ट कर डालती क्योंकि वह मीठी शक्कर की भांति शीरनी होती है। जायसी ने भी माया का लोप करने के लिए सतगुरु की कृपा १. नाटक समयसार, मोक्षद्वार, ३ रा पद्य । २. शत अष्टोत्तरी, २८ वा सवैय्या, ब्रह्मविलास, पृ० १४ । ३. विनयपत्रिका, पूर्वार्ध, ११६ वां पद । ४. भूधरविलास, कलकत्ता, १६ वो पद, पृष्ठ ११ वां। ५. कबीर माया मोहनी, जैसी मीठी खांड । '' सतगुरु की कृपा मई, नहीं तो करती भांड़ ।। 'माया को अंग', ७वीं साग्वी, कबीर प्रन्थावली, काशी, चतुर्थ संस्करण, पृ० ३३ । ATE $ 55 55 55 55 POOR A
SR No.010115
Book TitleJain Shodh aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain
PublisherDigambar Jain Atishay Kshetra Mandir
Publication Year1970
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy